हमारा जमाना डिजिटल नही था, पर बेशक बेहतरीन था 😊😊
छतों पे बिखरी होती थी पतंगों की बहार,
नीचे बुलाती लालों को, माओं की पूकार,
छुपन-छुपी का खेल, सतोलिये का खुमार,
प्रसाद के लिए मंदिर में लगाए लंबी कतार
साइकिलों की रेस, गिरना-उठना बार बार,
टायरों के खेल और धूल के गुबार,
गुलेल छोटी सी शेर चीतों के शिकार
धमाल, मार-धाड़ फिर शर्ट तार तार,
हुआ गली के आवराओं मे अपना भी शुमार,
आईने मे चेहरा अपना ताकना बार बार,
हर शोख हसीन चेहरे से कम्बख़्त हो जाता था प्यार,
पापा की लानतो से फिर उतरता ये बुखार,
गर्मी की तपती लू भी लगे बसंती बयार,
हर पल नयी उमंग थी हर दिन था त्योहार,
क्या उम्र थी, क्या ज़ज़्बा था क्या क्या नही था ,क्या क्या सुनाए,अब ,
वो दिन हवा क्या हुए अब ज़िम्मेदारियों की मार,
हर रोज करती है नई मुसीबतें इंतज़ार,
मक्डोनाल्ड और पीजा की दुकान में बैठे हुए याद आ गया,
काँच की बरनी मे रखा आम का आचार ।।
अनिता
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