मंगलवार, 23 नवंबर 2021

मोबाइल युग की तृष्णा

 आज मैं रूठ जाती हूँ  तुमसे,अपनी, उस ,सौतन की वजह से,

या

चली ही जाती हूँ ,हमेशा के लिए,,क्या फर्क पड़ता है तुमको,

ये जो मैं बार बार, तुम्हारे पास ,लौट के आती हूँ, ना,

अपने सारे ईगो को अपने पांव के नीचे कुचल कर,आती हूं,तुम क्या जानो,

इसी ने ,तुमको बेफिक्र बना दिया है,मुझे पता है की

तुम मुझको, बहुत आसान सा लेने लगे हो,

तुमको लगता है ,ये ,बार बार आ जाती है ,कहाँ जायेगी ?

मुझे वापस आया देख, तुम्हारा मुस्कुराना अब मुझे खलता है,

और  तुम क्या जानो ,ये तुम्हारा दर्प ,तुम्हारी खूबसूरती को ,कितना खराब कर देता है, इसे में ही महसूस कर सकती हूं,

देखो, ना,

कितना पागल थी  मैं ,तुम्हारी मुस्कान पे ,याद है मुझे 

कितने किलोमीटर का ,रात भर का, सफर करके ,तुम जब  ,घर आते थे 

वो ठंड के मौसम में ,तुम्हारे साथ,जब,लंबी यात्रा करते थे

और यही

कुछ घंटे ,तुमसे मुलाक़ात,

और तुम्हारे साथ की चाय का मजा लेते थे,

वो  तुम्हारा ,मेरे साथ, फतेहसागर  किनारे घंटों बैठे रहना,क्या क्या बताऊं अब,पर अब मेरी सौतन , जो,आपके हाथों में है,

चलो चलती हूँ कभी लौट के न आने के लिए क्योंकि मेरी बातें तो कभी खत्म नहीं होंगी,

और हाँ थोड़ा खुश रहने का हक़ तो मुझे भी है ना,

पता नही कितने रंग हैं तुम्हारे चेहरे के भी!!!! चलिए फिर आप मेरी सौतन के साथ खुश रहिए,उसी में अपने रिश्तों को खोजिए,में चली ,कभी मुड़कर नही आने के लिए,मुझे भी अब अपनी सौतन को लाना ही होगा,


अलविदा 


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