स्त्री के कामों की कभी लिस्ट बनाई क्या?..
वो कहते है ना स्त्री को घर बनाने में,उनका कितना समय लगता है...
और उसके कहना आसान होता है...
पर वो स्त्री ही है जो घर के सारे काम के साथ बड़े जतन से खाना बनाती है...
सुबह से तैयारी करके...
कभी कुछ धुप में सुखा के...
तो कभी कुछ पानी में भिगो के...
कभी मसालेदार..
तो कभी गुड़ सी मीठी...
सारे स्वाद समेट लेती हैं ...तरह तरह के परोसे बनाने में,
आलू के पराठों में, या गाजर के हलवे में, ऊपर बारीक कटे धनिये के पत्तो में, या पीस कर डाले गए इलाइची के दानों में...
सारे स्वाद समेट देती हैं एक छोटी सी थाली को सजाने में...और सबको खुश रखने में...
न जाने कहाँ से हुनर लाती है...
ना जाने कितना कुछ तो होता है . इन स्त्री के पास..
तुम बना पाओगे क्या ?...एक बार सोचें,
हम सबको बस खाना ही दिखता है...
पर नही दिखती...
किचन की गर्मी,
उस स्त्री का पसीना,
हाथ में गरम तेल के छींटे,
कटने के निशान,
कमर का दर्द,
पैरो में सूजन,
सफ़ेद होते बाल..
कभी नहीं दिखते...,,
कभी ध्यान से देखा क्या ?,,उस की रसोई रूपी कमरे में.. झांककर. क्या दिखेगा जाकर ,,
स्त्री का रूप
जो बदल गया है इतने सालो में... दांत हिले होंगे कुछ....
बाल झड़ गए होंगे कुछ...
झुर्रियां आयी होंगी कुछ,
मकान को घर बनाने में,,,,,घर के लोगों का खाना बनाने में
चश्मा लगाए, हाथ में अपनी करछी, बेलन लिए जुटी होगी...
आज भी वही कर रही है.. जो कर रही है वो पिछले पच्चीस तीस सालों से, और भी शायद ज्यादा समय हुआ होगा ,फिर भी तुम्हे देखते ही पूछेगी
"क्या चाहिए?”... कुछ और बना दूं?
कभी देखना उसके मन के कुछ अनकहे ज़ज़्बात, दबी हुई इच्छाएं,,
जो दिखती नही..
क्योंकि जो दिखती नही, उन्हें देखना और भी ज़्यादा ज़रूरी होता है...
उसकी गैर मौजूदगी में... कभी
जब रसोई से दो बिस्किट और चाय हाथ में लेकर निकलो ,, सच मानो
तब उसकी बात सोचने पे मज़बूर हो जाओगे.. क्योंकि उसने सिर्फ खाना ही नहीं बनाया है इतने सालो में...
इस घर को भी बनाया है...
खुद को मिटा के...
और याद है न...
बनाने में घण्टों लगते है,
दिन रात मेहनत करके...
लिस्ट तक नहीं पाएगी उसके कामों की, कोशिश करके देखना..
कभी बन नहीं पाएगी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
thanx for your valuable comments