ANITA SUKHWAL "GRACE"

शनिवार, 28 नवंबर 2020

***सास एक मां***

"सास"भी एक मां है

ऐसे सास को बदनाम ना करो
वो बहुत बड़ा दिल रखती है
जीवन की जमा पूंजी सब दे देती है
सौप देती जो कभी उनका था
जिस घर की मालकिन थी... 

तुम्हारे आने पर वो थाल सजा
ले तेरे हाथों के निशान,तेरी आरती उतार
घर की चाबी भी सौप देती हैं.. 

अपना सब देकर,नजर तो रखेंगी
तुझे आजमाने के लिए 
तेरी परीक्षा भी लेंगी
अपनी मालकियत के कुछ  
अनुभव भी तुम्हे देंगी...

कभी तुमसे रूठ जाएं तो
प्यार से मना लेना
ये अनमोल रिश्ता है
प्यार से सजा लेना....

कितना बड़ा दिल होगा
जो अपना जिगर का टुकड़ा
तुम्हे सौप देती है
बदले में बस 
कभी कभी उसकी टोह लेती है....

सास तेरे सुहाग की दुआ करती है
उसके लिए खुद दुख सहती है
हां कभी सुना देती है
थोड़ा बड़बड़ा भी लेती है...

पर सर दर्द में चाय भी बना के देती है
तेरे बेटा होने पे वो भी नाच लेती है
कभी कभी तो तेरे बच्चों संग
वो भी अपना बचपन जी लेती है...

उसका भी एक दिल होता है
वो जताती नहीं,कभी बताती नहीं
चुपके से तेरे लिए वो दुआ करती है
तेरी गृहस्थी से एक वो ही है
जो कभी जलती नही...

🙏
प्रस्तुतकर्ता Anita Sukhwal पर 9:18 pm 5 टिप्‍पणियां:
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रविवार, 8 नवंबर 2020

मेरी छवि

"उम्रदराज़ न बनो" 
उम्र को दराज़ में रख दो
उम्रदराज़ ना बनो
खो जाओ ज़िन्दगी में
मौत का इन्तज़ार न करो..
जिसको आना है आये
जिसको जाना है जाये
ये तो वक़्त की पहचान है
हम तो जीना जानते हैं
ज़िन्दगी से ही मिलते हैं बार बार
उसी को पहचानते हैं....
कभी बचपन को जीती हूँ
कभी जवानी में सपने सँजोती हूँ
बुढापे में भी रहूँगी जवान ही
ऐसा सोचती हूँ
महफिलों का शौक रखती हूँ
दोस्तों से प्यार करती हूँ
जो रिश्ते मुझे समझ सकें
मैं उनसे जुड़ी रहती हूँ
बँधती नहीं किसी से
ना किसी को जुड़ने पर मजबूर करती हूँ
दिल से जोड़ती हूँ हर रिश्ता
और उन रिश्तों से दिल से ही जुड़ी रहना चाहती हूँ...
हँसना मुझे भाता है
पर अपनों के लिये रोने से भी गुरेज नहीं करती
जो दे देता है एक बार दगा
उससे दूर जाने में भी परहेज़ नहीं करती
याद आते हैं वो लोग कभी
तो आँखें भिगो लेती हूँ
पर फिर ज़िन्दगी की हसीन वादियों में खो जाती हूँ
जानती हूँ कि ज़िन्दगी के पास
समय कुछ थोड़ा है
शिकवे शिकायतों में व्यर्थ क्यों गँवाऊँ
क्यों न शिद्दत से ज़िन्दगी जी लूँ इसे
और प्रेम की गंगा हर तरफ बहाऊँ
मैं रहूँ न रहूँ
पर मेरी छवि मेरे बाद भी ज़िन्दा रहेगी
जिसको दिल से जो भी याद करेगा
मैं उसमें अपनी ज़िन्दगी शायद महसूस कर सकूंगी...
😊😊💐💐❤️❤️😊😊
प्रस्तुतकर्ता Anita Sukhwal पर 7:30 pm 1 टिप्पणी:
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मंगलवार, 12 मई 2020

****कौन?****

मैं थोड़ी भावुक ,तो थोड़ी गुस्सैल हूं, कभी मुंह फट सी भी  कह देती हूं, मैं किसी को बहुत पसंद ,तो किसी को दिखाई  तक नहीं देती  हूं,मैं किसी के हर कदम पर,साथ तो, किसी के, कदमों के पीछे की, निशान भी हूं, कभी सहती हूं ,कभी कहती हूं, मैं पल में आंसू ,पल में हंस देती हूं, मैं किसी के लिए गुलाब ,तो किसी के लिए कांटो की बौछार भी हूं ,सच तो बस इतना है, जो मेरे साथ जैसा है, उसके साथ में वैसी हूं ,
हां मैं बहुत रूपों में बसी हूं ,खुद किसी की,एक बेटी ,और दो बेटो की मां हूं,,बस इतनी मेरी अपनी पहचान है,
कुछ लाइन जिसमे मन की बातें शामिल हैं
```मैं रूठा, तुम भी रूठ गए
फिर मनाएगा कौन ?
आज दरार है, कल खाई होगी
फिर भरेगा कौन ?
मैं चुप, तुम भी चुप
इस चुप्पी को फिर तोडे़गा कौन ?
हर छोटी मोटी बात को लगा लोगे दिल से,
तो रिश्ता फिर निभाएगा कौन ?
दुखी मैं भी और तुम भी बिछड़कर,
सोचो हाथ फिर बढ़ाएगा कौन ?
ना मैं राजी, ना तुम राजी,
फिर माफ़ करने का बड़प्पन दिखाएगा कौन ?
डूब जाएगा यादों में दिल कभी,
तो फिर धैर्य बंधायेगा कौन ?
एक अहम् मेरे, एक तेरे भीतर भी,
इस अहम् को फिर हराएगा कौन ?
ज़िंदगी किसको मिली है सदा के लिए ?
फिर इन लम्हों में अकेला रह जाएगा कौन ?
मूंद ली दोनों में से गर किसी दिन एक ने भी आँखें....
तो कल इस बात पर फिर पछतायेगा कौन ?```♥️
प्रस्तुतकर्ता Anita Sukhwal पर 9:45 am 2 टिप्‍पणियां:
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रविवार, 26 अप्रैल 2020

*तब ओर अब की बातें*




मुझे अच्छे से याद है पांचवी तक मेँ घर से तख्ती जिसे स्लेट कहते है,लेकर ही स्कूल गए थी
स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की मेंरी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें ।पढ़ाई का तनाव मेंने पेम का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।(पेम जिससे में स्लेट ओर लिखती थी शायद आज के बच्चों को नाम नही पता होगा)
स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना मेंरी रोज की दिनचर्या में शामिल था ।
पुस्तक के बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से में होशियार हो जाऊंगी ऐसा मेंरा दृढ विश्वास था ।  
कक्षा छः में पहली दफा मेंने अंग्रेजी का ऐल्फाबेट पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी ।
यह बात अलग है बढ़िया स्मॉल लेटर बनाना मुझे बारहवीं तक भी नही आया था ।कपड़े के थैले में किताब कॉपियां, जमाकर रखना मेंरा रचनात्मक कौशलकी तरह काम था ।हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना मेंरे साथ मेरे भाई बहनो का भी, उत्सव की तरह काम होता था ।जिससे हमें बहुत खुशी मिलती थी।माता पिता को हम सबकी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उन पर  बोझा थी । सालों साल बीत जाते पर भी माता पिता के कदम,  स्कूल में नही पड़ते थे ।
एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा मेंने ओर मेरे दोस्तों ने न जाने  कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं । जब
स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते थे टी मेंरा ईगो मुझे कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल में जानती ही नही थी कि ईगो होता क्या है ?
पिटाई  जैसा काम मेंरे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,पीटाने वाला और पिटने वाला दोनो खुश रहते थे , पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे ,  पीटाने वाला इसलिए, खुश कि हाथ साफ़ हुवा उसका,ये अहसाह बस अब यादें बन गया है
में अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाई कि में उन्हें कितना प्यार करती हूँ, क्योंकि हमें आई लव यू कहना ही नहीं आता था ।अब लगता है कि काश उन्हें एक बार भी ये बात कही होती।समय पंख लगाकर जैसे उड़ गया,आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते ,दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं ,दोस्तो ओर रिश्तेदारों में, कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।
हम दुनिया में कहीं भी रह रहे हों लेकिन यह सच लगता है ,कि हमे उस वक़्त ने  हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे ।
कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में यूँ कह सकते हैं कि हम सदा मूरख ही रहे  ।
अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं,ऐसा लगता है कि ये ,जीवन ,उसके सामने, कुछ भी नहीं ।
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक समय थे, काश वो समय फिर लौट आए ।
  "बस यूंही" आज कलम चलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मन किया।
अनिता सुखवाल

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प्रस्तुतकर्ता Anita Sukhwal पर 3:14 am 1 टिप्पणी:
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बुधवार, 4 मार्च 2020

**मेने पूछा**

पूछा मेने आइनेसे,  बता कैसी लगती हु?
निहार कर कूछ देर बोला......
मस्तिष्क पर रेखाएं नजर आ रही है,
पर इनमें फ़िक्र अपनो की है।
आखो में काजल सजी नही, नीचे डार्क सर्कल है,
 अपनो के लिये तू ठीक से सोई नहीं है।
कानो में पहनी बाली नहीं,
 पर तूने अनकहा सुनने का हुनर आगया है।
होठोपे सजी लाली नही,
 पर तेरे बोल मे प्यार झलकता है।
नाखून टूटे बेरंग है,पर हाथों मे स्वाद आगया है।
तोंद थोड़ीसी बाहर आगई है,
 यह खुद को समय ना देने का नतीजा है।
कमर तेरी कमसीन ना सही,
 तूने झुकना सिख लिया है।
घुटनों में थोड़ा दर्द है,
 पर घरमे, दौड़ तेरी मेराथन वाली है।
तू कल भी खूबसूरत थी, आजभी है....
  कल तू चंचल राधा थी, आज लक्ष्मी हो गई है।
     
प्रस्तुतकर्ता Anita Sukhwal पर 5:02 am 1 टिप्पणी:
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गुरुवार, 23 जनवरी 2020

***खुशी की असली वजह***

उसने कहा- बेवजह ही
खुश हो क्यों?
मैंने कहा- हर वक्त
दुखी भी क्यों रहूँ !

उसने कहा- जीवन में 
बहुत गम हैं,
मैंने कहा -गौर से देख,
खुशियां भी कहाँ कम हैं।

उसने तंज़ किया -
ज्यादा हँस मत,
नज़र लग  जाएगी,
मेरा ठहाका बोला-
चिकनी हूँ, 
फिसल जाएगी।

उसने कहा- नहीं होता
क्या तनाव कभी ?
जवाब दिया- मैंने ऐसा
तो कहा नहीं!

उसकी हैरानी बोली-
फिर भी यह हँसी?
मैंने कहा-डाल ली आदत
हर घड़ी मुसकुराने की!

फिर तंज़ किया-अच्छा!!
बनावटी हँसी, इसीलिए
परेशानी दिखती नहीं।
मैंने कहा-
अटूट विश्वास है,
प्रभु मेरे साथ है,
फिर चिंता-परेशानी की
क्या औकात है।
कोई मुझसे "मैं दुखी हूँ"
सुनने को बेताब था,
इसलिए प्रश्नों का
सिलसिला भी
बेहिसाब था

पूछा - कभी तो
छलकते होंगे आँसू ?
मैंने कहा-अपनी
मुसकुराहटों से बाँध
बना लेती हूँ,
अपनी हँसी कम पड़े तो
कुछ और लोगों को
हँसा देती हूँ ,
कुछ बिखरी ज़िंदगियों में
उम्मीदें जगा देती हूँ...
यह मेरी मुसकुराहटें
दुआऐं हैं उन सबकी
जिन्हें मैंने तब बाँटा,
जब मेरे पास भी
कमी थी।
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शनिवार, 4 जनवरी 2020

* यादो की हरियाली*

मेरे घर के अनगिन बढ़ती, अलमारियों के बीच
एक मेरी  अपनी अलमारी है,
मेरी नितांत अपनी निजी ,अलमारी, जिसे खोल कर मेरा,साड़ियों को उलटना पलटना  देखना,हर तीसरे - चौथे महीने की घटना है।
आज फिर खोला मैंने अपना पिटारा
कहीं शिफॉन कहीं बंधेज कहीं चंदेरी है कहीं बनारसी रंगीन झिलमिल कोमल रेशमी साड़ी,
मेरे कमरे में फैली यह दुनिया मेरी अपनी  है।
जब खोलो अलमारी, श्रीमान जी जरूर कमरे में चले आते हैं।
'बाप रे , इतनी साड़ियां!' ऑंखें फैला कर बुदबुदाते हैं।
क्या करोगी इनका? बस अच्छी अच्छी छांट दो।
बाकी जो नहीं पहनती गरीबों में बाँट दो।
जवाब में यही कहती हूँ, सुनो जी,बाहर जाओ,
पहले ही कम हैं, तुम नज़र मत लगाओ।
वे हंस कर चले जाते हैं, जेंटलमैन जो ठहरे।
पर यह बात , भीतर कहीं गहरे मेरे,लग जाती थी,लाओ देख ही लूँ , क्या पता कुछ निकल आये,सालों से न पहनी हुई कोई साड़ी किसी गरीब का तन ढकने के काम तो जरूर आयेगी।
देखो तो यह लाल सितारों जड़ी रंगीन बॉर्डर वाली साड़ी ,पर यह तो माँ ने पहली तीज पर दी थी।काली सफ़ेद प्योर शिफॉन अपनी पहली तनख्वाह से बहू ने दी थी। यह भारी भरकम बनारसी पहन कर मैं विदा हो ससुराल आयी थी।और यह हलकी फुल्की लहरिया मैं जोधपुर से लायी थी।यह पीली माहेश्वरी साड़ी श्रीमान जी खुद पसंद कर महू से मेरे लिए लाये थे।
और वो नीली लिनन मेरी पसंद से ऑनलाइन ,उन्होंने ही मंगाई थी।वेलफेयर और किट्टी की साड़ियों का अलग हिसाब है।सर्दी में सिल्क और गर्मी में शिफॉन का अपना शुरू से ही फौजी रुआब है। एक दो बेकार सी साड़ियाँ हैं, जिन्हे लायी थीं मेरी सहेलियां और रिश्तेदार ,मेरे दिल में बसी हैं ये, चाहे मैं इन्हे पहनूं या ना पहनूं।
सासुमा की दी हुई कई एक हैं, कुछ पसंद कुछ नापसंद,यही बाँट आउंगी,पर वो सालों बाद भी पूछ बैठेंगी तो उनका दिल कैसे दुखाऊँगी?
फिर हैं जो साड़ियाँ, वो मां और सास से उधार ली हुई,वापस करुँगी सोचा है, पहन पहन कर हैं रखी हुई।शादी में मिली हुई साड़ियां, जो खास पसंद तो नहीं हैं,पर कैसे दे दूँ इन्हें , मेरी यादों की पहली कड़ी तो यही हैं।और कड़ी दर कड़ी ही तो बनती है यादों की लड़ी,इन पुरानी कड़ियों को कैसे मिटाऊं? फिर आगे लड़ी कैसे बनेगी,
यही सोच कर रह जाऊं।
मेरी मामूली साड़ियों से किसी की गरीबी क्या ढंकेगी ,अलबत्ता मैं यादों से गरीब जरुर हो जाऊंगी।खुलती है अलमारी  तो दिल को बेहद सुकून मिलता है,खाली अलमारी में, यह रेशमी छुअन कैसे पाऊँगी? कहाँ मिलेगी इतनी नाज़ुक यादों की डोर,ज़िन्दगी की तपन में वो सूती छाँव कहाँ से लाऊंगी ?भले ही कीसि को, जगह और पैसे की बर्बादी लगे,इस आलमारी  को मेरे कमरे में पड़ा रहने दो,सोचा* गो ग्रीन* के नारे से परे मेरी साड़ियां और उनकी यादों को यूँ ही हरा रहने दो।तुम गरीबों में कुछ और बाँट दो,
मेरी अलमारी  को ऐसे ही भरा रहने दो ।


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