मंगलवार, 2 जनवरी 2018

पता ही नहीं चला***

*समय चला, पर कैसे चला... *
            *पता ही नहीं चला...*
       *जिन्दगी कैसे गुजरती गई...*
            *पता ही नहीं चला...*
ज़िन्दगी की आपाधापी में,
कब निकली उम्र हमारी,
*पता ही नहीं चला।*
कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे,
कब कंधे तक आ गए,
*पता ही नहीं चला।*
एक कमरे से
शुरू हुआ सफर,
कब बंगले तक आ गया,
*पता ही नहीं चला।*
साइकिल के
पैडल मारते हुए,
हांफते थे उस वक़्त,
अब तो, बड़ी
कारों में घूमने लगे हैं,
*पता ही नहीं चला।*
हरे भरे पेड़ों से
भरे हुए जंगल थे तब,
कब हुए कंक्रीट के,
*पता ही नहीं चला।*
कभी थे ,जिम्मेदारी
माँ बाप की हम,
कब बच्चों के लिए
हुए जिम्मेदार हम,
*पता ही नहीं चला।*
एक दौर था जब
दिन में भी बेखबर सो जाते थे,
कब रातों की उड़ गई नींद,
*पता ही नहीं चला।*
बनेंगे कब हम माँ बाप
सोचकर कटता नहीं था वक़्त,
कब हमारे बच्चों को बच्चे हो गए,
*पता ही नहीं चला।*
जिन काले घने
बालों पर इतराते थे हम,
कब रंगना शुरू कर दिया,
*पता ही नहीं चला।*
होली और दिवाली मिलते थे,
यार, दोस्तों और रिश्तेदारों से,
कब छीन ली ,प्यार भरी
मोहब्बत ,आज दे दौर ने,
*पता ही नहीं चला।*
दर दर भटके हैं,
नौकरी की खातिर खुद,
कब करने लगे
लोग नौकरी हमारे यहाँ,
*पता ही नहीं चला।*
बच्चों के लिए
कमाने, बचाने में
इतने मशगूल हुए हम,
कब बच्चे हमसे हुए दूर,
*पता ही नहीं चला।*
भरे पूरे परिवार से
सीना चौड़ा रखते थे हम,
कब परिवार हम दो पर सिमटा,
*।।। पता ही नहीं चला ।।।*

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