रविवार, 26 मई 2024

*हर पल को जीना चाहती हूं*

 *जब भी यह सवाल कोई पूछता है,*

 *मैं सोच में पड़ जाती हूँ,*


*बात यह नहीं, कि मैं,*

 *उम्र बताना नहीं चाहती हूँ,*

 *बात तो यह है, की,*

 *मैं हर उम्र के पड़ाव को,*

 *फिर से जीना चाहती हूँ,*

 *इसलिए जबाब नहीं दे पाती हूँ,*


*मेरे हिसाब से तो उम्र,*

 *बस एक संख्या ही है,*


*जब मैं बच्चो के साथ बैठ,*

 *कार्टून फिल्म देखती हूँ,*

 *उन्ही की, हम उम्र हो जाती हूँ,*

 *उन्ही की तरह खुश होती हूँ,*

 *मैं भी तब सात-आठ साल की होती हूँ,*


*और जब गाने की धुन में पैर थिरकाती हूँ,*

 *तब मैं किशोरी बन जाती हूँ,*


*जब बड़ो के पास बैठ गप्पे सुनती हूँ,*

 *उनकी ही तरह, सोचने लगती हूँ,*


*दरअसल मैं एकसाथ,*

 *हर उम्र को जीना चाहती हूँ,*


*इसमें गलत ही क्या है?*

 *क्या कभी किसी ने,*

 *सूरज की रौशनी, या,*

 *चाँद की चांदनी, से उम्र पूछी?*


*या फिर खल खल करती,*

 *बहती नदी की धारा से उम्र पूछी?*


*फिर मुझसे ही क्यों?*


*बदलते रहना प्रकृति का नियम है,*

 *मैं भी अपने आप को,*

 *समय के साथ बदल रही हूँ,*


*आज के हिसाब से,*

 *ढलने की कोशिश कर रही हूँ,*


*कितने साल की हो गयी मैं,*

 *यह सोच कर क्या करना?*


*कितनी उम्र और बची है,*

 *उसको जी भर जीना चाहती हूँ,*


*एकदिन सब को यहाँ से विदा लेना है,*

 *वह पल, किसी के भी जीवन में,*

 *कभी भी आ सकता है,*


*फिर क्यों न हम,*

 *हर पल को मुठ्ठी में, भर के जी ले,*

 *हर उम्र को फिर से, एक बार जी ले..*





शुक्रवार, 24 मई 2024

*मिलने की उम्मीद*

 बहुत पछताती हूँ जब उनका फ़ोन नहीं उठा पाती, जब उनके बीमार होने पर उनके पास नहीं जा पाती हूँ तब बेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ। 


सोचती हूँ कभी कितने ओहदे पाए मैंने बहन, बहु, पत्नी, माँ, गुरु, लेखक लेकिन सबसे ज्यादा हारा हुआ मैंने बेटी को पाया है।

हारा हुआ देखा मैंने खुद को जब जब भी मैं उनके पास नहीं थी एक बूँद पलकों पर आने से पहले जो समेट लेती मुझे आँचल में कभी रोई होगी सिसकियाँ भर कर अँधेरे में, उस वक़्त मैं उसके साथ नहीं थी।

जो मेरे लिए छप्पन व्यंजन बना7ती तो मैं नखरे कर एक कौर खाती

जो सौ आवाजों पर नहीं उठती मैं, फिर भी प्यार से मेरा सर सहलाती

बिजली की तरह अब सरपट आदेशों की पालन करती नज़र आती हूँबेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ।

बहुत पछताती हूँ जब गृहस्थी में उलझी उनका फ़ोन नहीं उठा पाती

“बस काम में लग गयी थी”, उनके चौथे फ़ोन पर भी इतना ही कह पाती हूँ,याद करती हूँ वो ज़माना जब सब कुछ ज़रूरी छोड़ वो मेरे पास बैठ जाया करते “अरे काम तो होता रहेगा” पापा बड़ी आसानी से कह जाया करते उस वक़्त में खुद को बहुत छोटा पाती हूँ बेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ।

पुरानी और बेमेल रंगों से बनी वो प्रतिच्छाया भी मेरी जब आज भी तुम सहेजे रख लेती हो “कितनी पुरानी  है माँ ये, इसे फेंकती क्यूँ नहीं?” कहा मैंने और तुम उतने ही प्रणय से उसे अपने सीने से लिपटा लेती हो मेरा मन बंट गया है कितनों में, पर आज भी तुम्हारे मन पर मेरा एकाधिकार पाती हूँ उस वक़्त, बेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ।

“मैं आ रही हूँ कल घर पर”, सुनते ही, मेरे आने से पहले ही भरे बाज़ार से कैसे उस पतली गली के कोने वाली दुकान से पापा “अभी फ्रेश बना हुआ” मावा लेने पहुँच जाया करते हैं चार दिन दिवाली हो ऐसे जताया करते हैं जब उनके बीमार होने पर उनके पास नहीं जा पाती हूँ उस वक़्त, बेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ।

भरी आँखें और फिर मिलने की उम्मीद, जब घर छोड़ते हुए देखती हूँ रूककर फिर से उन्हें गले नहीं लगा पाती जिम्मेदारियों का चोला और ये मीठे रिवाज़ मुझे फिर उतरकर उनके पास नहीं जाने देते अंतरमन में दहाड़ कर रोते हुए भी उन्हें बचपना ना करने की बनावटी नसीहत देती हूँ उस वक़्त मैं बेटी के रूप में खुद को हारा हुआ पाती हूँ।







*सासु माँ का साथ एक आशीर्वाद*

“ बेटा सुन आज आते वक्त मेरा एक काम कर देगा?” दमयंती जी ने सोमेश से पूछा 

“ हाँ माँ बोलो ना क्या काम है?” सोमेश ने कहा 

उधर रसोई में काम करती रचिता मन ही मन बुदबुदा रही थी.. जब से आई है जरा पल भर का सुकून नहीं है… कभी चाय कभी पानी तो कभी दवा बस अपने आगे पीछे लट्टू की तरह घुमाए रखती हैं… कल मेरा जन्मदिन है वो भी इनकी सेवा में बीत जाना.. कितना मन था सुबह मंदिर जाकर पूजा करूँगी फिर शाम को सोमेश के साथ किसी मॉल में शॉपिंग और डिनर कर घर आते …पर ये है ना महारानी जी इनके रहते हम बाहर कैसे जा सकते ….बाहर का खाना तो इन्हें हज़म नहीं होगा …पहले पकाओ फिर कही जाओ.. कितना अच्छा था ये उधर अपने घर में ही रहती थी…।

उधर दमयंती जी से बात कर सोमेश ऑफिस चला गया पूरे दिन रचिता मन ही मन सास को जली कटी सुनाती रही …ना अच्छे से बात की ना दो घड़ी उनके पास बैठी…. सोमेश ही माँ को ज़िद्द कर साथ ले आया था जब इस बार घर गए थे अब तो सास यही रहेंगी… सारी आज़ादी ख़त्म … सोच सोच कर रचिता को कोफ़्त हो रही थी ।

रात सोमेश जब घर आया तो पहले माँ से मिलने गया फिर चाय नाश्ता किया ।।

रात को खाने के बाद जब सब सोने जा रहे थे दमयंती जी ने रचिता को कमरे में बुलाया 

“ बहू कल तुम्हारा जन्मदिन है ना… ये लो सलवार सूट… सोमेश से कहा था तुम्हारी पसंद का ही लाए… कल सुबह तुम उठ कर मंदिर चली जाना… नाश्ते खाने की चिंता ना करना वो मैं देख लूँगी… कल सोमेश की तो छुट्टी है नहीं पर जब वो ऑफिस से आ जाए तुम उसके साथ बाहर घूम आना।” दमयंती जी एक पैकेट रचिता को देती हुई बोली 

“ पर माँ आपको कैसे पता मैं मंदिर जाती हूँ नए कपड़े पहन कर?” आश्चर्य से रचिता ने पूछा 

“ बहू तुम हर बार मंदिर से निकल कर ही तो फ़ोन कर आशीर्वाद लेती हो तो कैसे याद नहीं रहेगा..।”दमयंती जी ने कहा

रचिता पैकेट लेकर सास को प्रणाम कर जाने लगी तो दमयंती जी बोली,“ बहू तुम जैसे पहले रहती थी वैसे ही रहो..मेरी वजह से परेशान मत हुआ करो.. बस जब से यहाँ आई हूँ तो लगता है घर में कोई तो है… तो बस तुम्हें अपने आसपास रखने को तुमसे कुछ ना कुछ करवाती रहती हूँ…..वहाँ घर पर तो अकेले ही रह रही थी ना।” 

“ जी माँ ।” रचिता बस इतना ही कह पाई… 

बाहर सोमेश ये सब खड़े होकर सुन रहा था जैसे ही रचिता अपने कमरे में पहुँची सोमेश ने कहा,“ जब से माँ आई है तुम कभी भी उससे ना तो ठीक से बात करती हो ना तुम्हें उसके पास बैठना पसंद है और जब तब जो माँ के लिए जली कटी मुझे सुनाती रहती हो बता नहीं सकता कितनी पीड़ा होती हैं….पर जब माँ ने मुझे कहा कल बहू का जन्मदिन है उसके लिए एक सूट ला देना और मुझे पैसे भी दिए मना करने लगा तो बोली तू अपनी तरफ़ से जो देना दे ….ये मेरी तरफ़ से ला देना…अब बताओ माँ के मन में तुम्हारे लिए क्या है… और तुम्हारे मन में माँ के लिए क्या?” 

“ मुझे माफ कर दो सोमेश मैं माँ को समझ ही नहीं पा रही थी वो जब से यहाँ आई मुझे लग रहा था मेरा काम बढ़ गया है पर ये नहीं सोच पाई वो अपने अकेलेपन की वजह से मुझे अपने आसपास रखती थी… कल माँ को भी मॉल लेकर चलेंगे…ठीक है ना?” रचिता ने शर्मिंदा होते हुए कहा 

“ चलो जल्दी ही समझ आ गया नहीं तो मैं सोच रहा था मेरी माँ का क्या होगा?” सोमेश रचिता को देखते हुए बोला 

“ कुछ नहीं होगा अब माँ अपनी बहू के साथ अच्छे से रहेंगी तुम देख लेना।” रचिता कह कर सो गई 

कल की सुबह उसे माँ समान सास से आशीर्वाद भी तो लेना था… इधर सोमेश अब माँ को लेकर थोड़ा बेफ़िक्र हो गया था ।

साभार

(रश्मि प्रकाश जी की कहानी )