मैं स्त्री हूँ...सहती हूँ...
तभी तो आप कर पाते हो गर्व,अपने पुरुष होने पर।।
मैं झुकती हूँ......
तभी तो ऊँचा उठ पाता है आपके अहंकार का आकाश।।
मैं सिसकती हूँ......
तभी तो आप मुझ पर कर पाते हो खुल कर अट्टहास।।
व्यवस्थित हूँ मैं......
इसलिए तो आप रहते हो मस्त।।।।।
मैं मर्यादित हूँ.........
इसलिए आप लाँघ जाते हो सारी सीमाएं!!
स्त्री हूँ मैं...
हो सकती हूँ पुरुष भी...पर नहीं होती।
रहती हूँ स्त्री इसलिए...ताकि जीवित रहे आपका पुरुष।।।।।
मेरे ही त्याग से पलता आपका पौरुष।।
मैं समर्पित हूँ....
इसलिए हूँ...अपेक्षित,तिरस्कृत!!!
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान,ताकि आहत न हो आपका अभिमान।
सुनो मैं नहीं व्यर्थ...
मेरे बिना भी आपका नहीं कोई अर्थ!