मुझे अच्छे से याद है पांचवी तक मेँ घर से तख्ती जिसे स्लेट कहते है,लेकर ही स्कूल गए थी
स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की मेंरी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें ।पढ़ाई का तनाव मेंने पेम का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।(पेम जिससे में स्लेट ओर लिखती थी शायद आज के बच्चों को नाम नही पता होगा)
स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना मेंरी रोज की दिनचर्या में शामिल था ।
पुस्तक के बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से में होशियार हो जाऊंगी ऐसा मेंरा दृढ विश्वास था ।
कक्षा छः में पहली दफा मेंने अंग्रेजी का ऐल्फाबेट पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी ।
यह बात अलग है बढ़िया स्मॉल लेटर बनाना मुझे बारहवीं तक भी नही आया था ।कपड़े के थैले में किताब कॉपियां, जमाकर रखना मेंरा रचनात्मक कौशलकी तरह काम था ।हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना मेंरे साथ मेरे भाई बहनो का भी, उत्सव की तरह काम होता था ।जिससे हमें बहुत खुशी मिलती थी।माता पिता को हम सबकी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उन पर बोझा थी । सालों साल बीत जाते पर भी माता पिता के कदम, स्कूल में नही पड़ते थे ।
एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा मेंने ओर मेरे दोस्तों ने न जाने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं । जब
स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते थे टी मेंरा ईगो मुझे कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल में जानती ही नही थी कि ईगो होता क्या है ?
पिटाई जैसा काम मेंरे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,पीटाने वाला और पिटने वाला दोनो खुश रहते थे , पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटाने वाला इसलिए, खुश कि हाथ साफ़ हुवा उसका,ये अहसाह बस अब यादें बन गया है
में अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाई कि में उन्हें कितना प्यार करती हूँ, क्योंकि हमें आई लव यू कहना ही नहीं आता था ।अब लगता है कि काश उन्हें एक बार भी ये बात कही होती।समय पंख लगाकर जैसे उड़ गया,आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते ,दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं ,दोस्तो ओर रिश्तेदारों में, कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।
हम दुनिया में कहीं भी रह रहे हों लेकिन यह सच लगता है ,कि हमे उस वक़्त ने हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे ।
कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में यूँ कह सकते हैं कि हम सदा मूरख ही रहे ।
अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं,ऐसा लगता है कि ये ,जीवन ,उसके सामने, कुछ भी नहीं ।
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक समय थे, काश वो समय फिर लौट आए ।
"बस यूंही" आज कलम चलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मन किया।
अनिता सुखवाल
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