शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

*गुम होते संयुक्त परिवार*


*एक वो दौर था* जब पति,
*अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर*
घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था । 
पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे ।
 बाऊजी की बातों का.. *”हाँ बाऊजी"* 
*"जी बाऊजी"*' के अलावा दूसरा जवाब नही होता था ।
*आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया ।*
 ये *"समय-समय"* की नही,
*"समझ-समझ"* की बात है
बीवी से तो दूर, बड़ो के सामने, अपने बच्चों तक से बात नही करते थे
*आज बड़े बैठे रहते हैं हम *सिर्फ बीवी* से बात करते हैं
दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए
आरक्षित होते थे, *काका* ही
*भतीजों के दोस्त हुआ करते थे ।*
आज वही दादू - दादी 
*वृद्धाश्रम* की पहचान है,
 *चाचा - चाची* बस
 *रिश्तेदारों की सूची का नाम है ।*
बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए
जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे ।
*'ताऊजी'*
आज *सिर्फ पहचान* रह गए
और,......
 *छोटे के बच्चे*
पता नही *कब जवान* हो गये..??
दादी जब बिलोना करती थी,
बेटों को भले ही छाछ दे
 पर *मक्खन* तो
*केवल पोतों में ही बाँटती थी।*
 *दादी ने*
*पोतों की आस छोड़ दी*,
 क्योंकि,...
*पोतों ने अपनी राह*
*अलग मोड़ दी ।*
राखी पर *बुआ* आती थी,
घर मे नही
*मोहल्ले* में,
*फूफाजी* को
 *चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।*
अब बुआजी,
बस *दादा-दादी* के
बीमार होने पर आते है,
किसी और को
उनसे मतलब नही
चुपचाप नयननीर बरसाकर
वो भी चले जाते है ।
शायद *मेरे शब्दों* का
कोई *महत्व ना* हो,
पर *कोशिश* करना,
इस *भीड़* में
*खुद को पहचानने की*,
*कि*,.......
*हम "ज़िंदा है"*
या
*बस "जी रहे" हैं"*
अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचा दिया,
*"शिक्षा के चक्कर में*
 *संस्कारों को ही भुला दिया"।*
बालक की *प्रथम पाठशाला परिवार*
पहला *शिक्षक उसकी माँ* होती थी,
आज
 *परिवार ही नही रहे*
पहली शिक्षक का क्या काम...??
"ये *समय-समय* की नही,
 समझ-समझ* की बात है"।

Written by abhasaxena

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

* जैसे को तैसा*

रमेश बाबु अपनी पत्नी स्वाति  साथ बैठे चाय पी रहे  थे।
  "अनिल ने जो फ्लैट बुक किया था,उसकी चाभी उसे मिल गयी है।कहीं  वह अपनी बहू और बच्चों के साथ वहीं न शिफ्ट कर जाये।"....स्वाति ने कहा ।
    "अरे नहीं!अनिल ने फ्लैट बुक करते समय ही कहा था,केवल पैसा इन्वेस्ट कर रहा था।मुझे यकीन है, हमलोग को छोड़ कर वह कभी नहीं जायेगा ।".....रमेश बाबु ने मुस्कुराते हुए कहा ।पता नहीं क्यों उनकी आँखों के सामने उनकी माँ गंगा देवी का चेहरा आ गया ।बीस साल पहले उन्होंने अपने माता-पिता का घर यह कहते हुए छोड़ दिया था कि ऑफिस की तरफ से इतना बढ़िया फ्लैट मिल रहा है,अगर अभी शिफ्ट नहीं करेंगे तो फ्लैट हाथ से चला जायेगा ।पत्नी     स्वाति का इतना दबाब था कि उन्होंने आपनी माँ का अश्रुपूरित आँखों को भी नजरअंदाज कर दिया ।माँ ने बड़ी धीमी आवाज और बेचारगी भरे स्वर  में कहा था,"तुमलोगों के बगैर हमलोग कैसे रह पायेंगे ।बच्चों के बिना घर खाने को दौड़ेगा।"
    माँ का उदास और बुझा हुआ चेहरा उनकी आँखों के सामने आ गया ।लेकिन पत्नी की हार्दिक इच्छा और सुखद स्वछन्द जीवन की लालसा ने उन्हें सरकारी आवास में रहने को मजबूर कर दिया ।
     वे अभी ये सब सोच ही रहे थे कि तभी अनिल आया और उनकी बगल में  बैठ गया ।बोला," पिताजी! एक बात कहनी है ।हमें नये फ्लैट की चाभी मिल गयी है ।हमलोग वहीं शिफ्ट होना चाहते हैं ।वहाँ से मेरा ऑफिस और बच्चों का स्कूल नजदीक है।आपकी बहु, को भी वहीं पास के स्कूल में  टीचर की नौकरी लग गयी है ।" हम लोग कल से ,वहाँ रहने जा रहे हैं।कहकर वो बाहर चला गया
रमेश बाबु ने अपनी पत्नी की तरफ देखा ......उसका चेहरा  बिलकुल उनकी माँ की तरह दिख रहा था ..... उदास और बुझा हुआ ।
         
                     

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

प्रायश्चित के आंसू**

।। जैसा बोओगे वैसा काटोगे ।।
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सुनो.. कल मम्मी पापा आ रहे हैं दस दिन रूकेंगे.. एडजस्ट कर लेना.. मयंक ने स्वाति को बैड पर लेटते हुए कहा।
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कोई बात नही आने दीजिए आपको शिकायत का कोई मौका नही मिलेगा..
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स्वाति ने भी प्रति उत्तर में कहा और स्वाति ने लाइट बन्द कर दी और दोनो सो गए।
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सुबह जब मयंक की आंख खुली तो स्वाति बिस्तर छोड़ चुकी थी।
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चाय ले लो.. स्वाति ने मयंक की तरफ चाय की प्याली को बढाते हुए कहा..
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अरे तुम आज इतनी जल्दी नहा ली..
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हां तुमने रात को बताया था कि आज मम्मी पापा आने वाले हैं तो सोचा घर को कुछ व्यवस्थित कर लूं..
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स्वाति ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.. वैसे.. किस वक्त तक आ जाएंगे वो लोग..
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दोपहर वाली गाड़ी से पहुंचेंगे चार तो बज ही जाऐंगे.. मयंक ने चाय का कप खत्म करते हुए जवाब दिया..
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स्वाति.. देखना कभी पिछली बार की तरह..
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नही नही.. पिछली बार जैसा कुछ भी नही होगा.. स्वाति ने भी कप खत्म करते हुए मयंक को कहा और उठकर रसोई की तरफ बढ गई।
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मयंक भी आफिस जाने के लिए तैयार होने के लिए बाथरूम की तरफ बढ गया।
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नाश्ता करने के बाद मयंक ने स्वाति से पूछा.. तुम तैयार नही हुई.. क्या बात.. आज स्कूल की छुट्टी है..??
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नही.. आज तुम निकलो मैं आटो से पहुंच जाऊंगी.. थोड़ा लेट निकलूंगी.. स्वाति ने लंच बाक्स थमाते हुए मयंक को कहा।
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बाय बाय.. कहकर मयंक बाइक से आफिस के लिए निकल गया, और स्वाति घर के काम में लग गई..
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मुझे तो बहुत डर लग रहा है मैं तुम्हारे कहने से वहां चल तो रहा हूं लेकिन पिछली बार बहू से जिस तरह खटपट हुई थी मेरा तो मन ही भर गया था।
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ना जाने ये दस दिन कैसे जाने वाले हैं.. मयंक के पिता जी मयंक की मम्मी से कह रहे थे।
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अजी.. भूल भी जाइये.. बच्ची है.. कुछ हमारी भी तो गलती थी।
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हम भी तो उससे कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे थे। उन बातों को सालभर बीत गया है.. क्या पता कुछ बदलाव आ गया हो।
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इंसान हर पल कुछ नया सीखता है.. क्या पता कौन सी ठोकर किस को क्या सिखा दे..
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मयंक की मां ने पिता जी को हौंसला देते हुए कहा..
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मयंक की मां यह कहकर चुप हो गई और याद करने लगी..
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दो भाइयों में मयंक बड़ा था और विवेक छोटा।
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मयंक गांव से दसवीं करके शहर आ गया.. आगे पढने और विवेक पढाई में कमजोर था, इसलिए गांव में ही पिता जी का खेती बाड़ी में हाथ बंटाने लगा।
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मयंक बी टेक करके शहर में ही बीस हजार रू की नौकरी करने लगा।
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स्वाति से कोचिंग सेन्टर में ही मयंक की जान पहचान हुई थी यह बात मयंक ने स्वाति से शादी के कुछ दिन पहले बताई।
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पिता जी कितने दिन तक नही माने थे इस रिश्ते के लिए..
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वो तो मैने ही समझा बुझाकर रिश्ते के लिए मनाया था वरना ये तो पड़ौस के गांव के अपने दोस्त की बेटी माला से ही रिश्ता करने की जिद लगाए बैठे थे।
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गांव आकर स्वाति के घर वालों ने शादी की थी.. दो साल होने को आए उस दिन को भी।
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शादी करके दोनो शहर में ही रहने लगे। स्वाति भी प्राइवेट स्कूल में टीचर की जाॅब करने लगी।
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पिछली बार जब गांव से आए थे तो मन में बड़ी उमंगे थी पर सात आठ दिन में ही बहू के तेवर और बेटे की बेबसी के चलते वापस गांव की तरफ हो लिए।
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कई बार मयंक को फोन करकर बोला भी की बेटा गांव आ जा.. पर वो हर बार कह देता..
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मां छुट्टी ही नही मिलती कैसे आऊं..
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लेकिन मैं ठहरी एक मां.. आखिर मां का तो मन करता है ना अपने बच्चे से मिलने का.. बहू चाहे कैसा भी बर्ताव करे..
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काट लेंगे किसी तरह ये दस दिन.. पर बच्चे को जी भरकर देख तो लेंगे..
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अरे भागवान.. उठ जाओ.. स्टेशन आ गया उतरना नही है क्या.. मयंक के पिता जी की आवाज मयंक की मां को यादों की दुनियां से वापस खींच लाई..
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सामान उठाकर दोनो स्टेशन से बाहर आ गए और आटो में बैठकर दोनो मयंक के घर के लिए रवाना हो गए..
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घर पहुंचे तो बहू घर पर ही थी। जाते ही बहू ने दोनो के पैर छुए..
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हम दोनो को ड्राइंगरूम में बिठाकर हम दोनो के लिए ठण्डा ठण्डा शरबत लाई..
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हम लोगों ने जैसे ही शरबत खत्म किया बहू ने कहा, पिता जी... आप सफर से थक गए होंगे.. नहा लिजिए..
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सफर की थकान उतर जाएगी फिर मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।
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पिता जी नहाने चले गए। बहू रसोई में घुसकर खाना बनाने लगी।
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थोड़ी देर में मयंक भी आ गया। फिर बैठकर सबने थोड़ी देर बातें की और फिर सबने खाना खाया। मयंक और बहू सोने चले गए और हम भी सो गए।
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सुबह पांच बजे पिता जी उठे तो तो बहू उठ चुकी थी..
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पिता जी को उठते ही गरम पानी पीने की आदत थी बहू ने पहले से ही पिता जी के लिए पानी गरम कर रखा था..
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नहा धोकर पिता जी को मंदिर जाने की आदत थी.. बहू ने उनको जल से भरकर लौटा दे दिया..
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नाश्ता भी पिता जी की पसंद का तैयार था..
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सबको नाश्ता करवा कर बहू मयंक के साथ चली गई पिताजी ने भी चैन की सांस ली..
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चलो अब चार पांच घण्टे तो सूकून से निकलेंगे।
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दिन के खाने की तैयारी बहू करकर गई थी सो मैने चार पांच रोटियां हम दोनो की बनाई और खा ली।
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स्कूल से आते ही बहू फिर से रसोई में घुस गई और हम दोनों के लिए चाय बना लाई..
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शाम को हम दोनों को लेकर बहू पास के पार्क में गई वहां उसने हमारा परिचय वहां बैठे बुजुर्गों से करवाया..
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वो अपनी सहेलियों से बात करने लगी और हम अपने नए परिचितों से परिचय में व्यस्त हो गए।
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शाम के सात बज चुके थे.. हम घर वापस आ गए। मयंक भी थोड़ी देर में घर आ गया।
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बैठकर खूब सारी बातें हुई। बहू भी हमारी बातों में खूब दिलचस्पी ले रही थी थोड़ी देर बाद सब सोने चले गए।
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अगले दिन सण्डे था बहू, मयंक और हम दोनो चिड़ियाघर देखने गए..
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हमारे लिए ताज्जुब की बात ये थी की प्रोग्राम बहू ने बनाया था.. बहू ने खूब अच्छे से चिड़ियाघर दिखाया और शाम को इण्डिया गेट की सैर भी करवाई..
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खाना पीना भी हम सबने बाहर ही किया.. फिर हम सब घर आ गए और सो गए..
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इस खुशमिजाज रूटीन से पता ही नही चला वक्त कब पंख लगाकर उड़ गया..
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कहां तो हम सोच रहे थे कि दस दिन कैसे गुजरेंगे और कहां पन्द्रह दिन बीत चुके थे।
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आखिर कल जब विवेक का फोन आया कि फसल तैयार हो गई है और काटने के लिए तैयार है तो हमें अगले ही दिन गांव वापसी का प्रोग्राम बनाना पड़ा।
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रात का खाना खाने के बाद हम कमरे में सोने चले गए तो बहू हमारे कमरे में आ गई बहू की आंखों से आंसू बह रहे थे।
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मैने पूछा.. क्या बात है बहू.. रो क्यों रही हो.?
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तो बहू ने पूछा.. पिताजी, मां जी.. पहले आप लोग एक बात बताइये..
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पिछले पन्द्रह दिनों में कभी आपको यह महसूस हुआ की आप अपनी बहू के पास है या बेटी के पास..
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नही बेटा सच कहूं तो तुमने हमारा मन जीत लिया.. हमें किसी भी पल यह नही लगा की हम अपनी बहू के पास रह रहें हैं
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तुमने हमारा बहुत ख्याल रखा, लेकिन एक बात बताओ बेटा.. तुम्हारे अंदर इतना बदलाव आया कैसे..??
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पिताजी.. पिछले साल मेरे भाई की शादी हुई थी। मेरे मायके की माली हालात बहुत ज्यादा बढिया नही है।
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इन छुट्टियों में जब मैं वहां रहने गई तो मैने अपने माता पिता को एक एक चीज के लिए तरसते देखा..
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बात बात पर भाभी के हाथों तिरस्कृत होते देखा.. मेरा भाई चाहकर भी कुछ नही कर सकता था।
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मैं वहां उनके साथ हो रहे बर्ताव से बहुत दुखी थी।
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उस वक्त मुझे अपनी करनी याद आ रही थी.. कि किस तरह का सलूक मैंने आप दोनो के साथ किया था।
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किसी ने यह बात सच ही कही है कि "जैसा बोओगे वैसा काटोगे"।
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मैं अपने मां बाप का भविष्य तो नही बदल सकती लेकिन खुद को बदल कर मैं ये उम्मीद तो अपने आप में जगा ही सकती हूं..
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कि कभी मेरी भाभी में भी बदलाव आएगा और मेरे मां बाप भी सुखी होंगे...
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बहू की बात सुनकर मेरी आंखे भर आई। मैने बहू को खींचकर गले से लगा लिया.. हां बेटा अवश्य एक दिन अवश्य ऐसा होगा...
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ठोकर सबको लगती है लेकिन सम्भलता कोई कोई ही है, लेकिन हम दुआ करेंगे कि तुम्हारी भाभी भी सम्भल जाए..
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बहू अब भी रोए जा रही थी उसकी आंखों से जो आंसू गिर रहे थे वो शायद उसके पिछली गलतियों के प्रायश्चित के आंसू थे..!!

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

**मेरी कहानी मेरी जुबानी**


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मेरी कहानी मेरी जुबानी
हेलो 👐सभी को मेरा नमस्कार🙏 मैं अनीता सुखवाल उदयपुर की हूं। मेरा पीहर इंदौर है।मैने वनस्पति शास्त्र में एम् एस सी किया है,मेरी होलकर साइंस कॉलेज में, मेरिट में चोथी पोजीशन थी। पी एच डी करते हुए ही, क्यूंकी मेरी शादी उदयपुर हो गई थी, तो वो काम अधूरा रह गया। मैं  पूरी तरह नए  खूबसूरत शहर के ,परिवार में ,जहां का नया माहौल,नया खानपान,नए तरह का पहनाना ओढ़ना, सब तरह के कामो में रच बस सी गई।परिवार मेरा ज्वाइंट है इसलिए काम खूब रहता था फिर भी बहुत बार  जरूर ऐसा लगा ,के मेरी
 पढाई के अनुरूप में कुछ भी नहीं कर पा रही हूं, कई बार नौकरी करू,ऐसा ख़्याल आता था, पर हर बार पतिदेव ने मना किया।बोलते रहते, के घर के काम क्या कम  हैं, जो बाहर जा के करना है l ढेर सारे शौक थे मेरे तो इन्हें में, कैसे और कब पूरे करूंगी ?समझ नही आता था,मन मसोस कर रह जाती थी,धीरे धीरे  समय के साथ दो बेटों का आगमन हुआ,इनकी परवरिश में समय भागा चला गया।आज बडा इंफोसिस में इंजिनियर है और छोटा शेफ  है।इनको देखकर लगता है मैने शायद उस वक्त जिद करके, नौकरी की होती तो आज ये पता भी किस मुकाम पर होते।अब इस उम्र के पड़ाव  मैं अपने तमाम
 शौक पूरे करती हूं।शुरू से ही मेरी तरह तरह की हॉबी रही थी ,इसलिए मैने श्रीनाथी की ग्लास पेंटिंग्स बनाई। अब इसके साथ , मै बच्चो को, सीखाकर अपने समय का सदुपयोग करती हूं और परिवार वालों का भी ख्याल रखती हूं।मुझे कहानियां कविताएं  लिखने का भी खूब शौक है,इसके लिए एक ब्लॉग ,मैने बनाया है ।मुझे ऊनी  क्रोशिए की टोपी बनाने का बहुत शौक है। हर बार ठंड के आगमन के साथ हमारे रिश्तेदारों की ओर दोस्तो को टोपियां बना के देना मेरा शौक है
छोटे बच्चो के बेबी फ्रोक बूटी बनाना मेरे मनपसंद काम है।इसको मैने अब प्रोफ़ेशनल तरीके से भी बनाना शुरू किया है।मैने शायद कोई भी काम के लिए आज तक ना नही किया और  में समझती हूं ,किसी भी काम को सीखना है या सिखाना  है तो इसकी कोई उम्र नहीं होती ।आज भी में समय के साथ  जब भी फ्री  रहती हूं ऑनलाइन खूब सिखती हूं यहां से मुझे अपने शौक के अनुसार बहुत अच्छा सीखना मिल जाता है।और अपने शौक को बच्चो और महिलाओ को सिखाकर बहुत खुश होती हूं। मैने  अभी मात्र  इकसठ वसंत देखे है, पर अभी भी मेरा सीखना और सिखाना कम नहीं पड़ा है।श्रीनाथजी की कला के साथ साथ,मेने हॉबी क्लासेज में करीबन दो सौ एक्टिविटीज , डांस म्यूजिक के सारे काम सिखाना शुरू किए है, जिसमें में अपने आप को व्यस्त  रखती हूं। शायद मेरे  यही जीवन का सार है। बस सीखो और खूब सिखाओ ।
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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019

**तुमने कहा था **

शादी के वक्त से तुम कहते आये हो के हम दोनों      एक हैं   अब शादी के करीबन अड़तीस साल बाद  तो,,अपने  बराबर  करके  मुझे  देखो  नामत  करो  वादे जन्मो  के  ,एक  पल ख़ुशी  की  वजह  बनो, न . जब  में किचेन  में  जाउं ,,तुम  थोड़ा हाथ बटा दिया करो  न कभी  सब्जियों  में ,अदरक, हरीमिर्च   डाली  ही  हुई  है, मान भी लिया करो  ना  ,मे पसंद नापसंद जानती हूँ सब, मान भी लिया करो ना ,कहकर बार  बार इसे ही, मन को अशांत नही किया करो ना,   ,दूसरों को .जैसा सम्मान देते हो ..वैसा  ,, घरवालों को भी ,,,वैसा ही  सम्मान दिया करो ना, ,बार बार ज्यादा, पढ़ी लिखी का कहकर ,खुद , को परेशान मत किया  करो ना,कभी तो इसी बात को लेकर गर्व भी कर  लिया करो ना   ,,,मान सम्मान का ही  भूखा होता  है ,हरेक इंसान  ,,कभी तो    ऐसा भी सोच लिया करो ना     ,,,,, ये मत सोचो के इससे वो, आपसे ऊँचे हो जायेंगे  जायेंगें , बस थोड़ा उका भी कोई वजूद है,,,ये भी समझ लिया  करो ना,  हर वक्त खुद ही सही हो,जरूरी नहीं ,कभी हंसकर  हार भी मान लिया करो ना ,,,कभी अपने  बुरे वक़्त को याद करके देख लेना, उस वक्त कितना  कौन कौन,काम आया था ,,बस इसी से ,अपनों पहचान कर लिया करो न,,, वैसे मै  कभी नही कहती कि,,  सारी बातो का   श्रेय अपनों को   ही  दो,पर कभी  कुछ  औरों  की तरह  , अपनों, भी सम्मान दिया  करो ना।    व्यस्त  रहती  हूँ  कभी जब  में , किसी काम में  में ,थोड़ी मदद  कर दिया करो न  ,बस यूँ  ही एक हे  एक  हे,  कह  कर ,जिन्दगी कहाँ   चलती  हे ,,, कभी   तुम  भी  दबा दो न सर  मेरा , ये   कमी तो  मुझे  भी, कभी ..बहुत , अखरती है , जब  में कभी   बाहर   जाती  हूँ ,तुम ही घर को  स्रवांर  कर रख दिया करो   ,,तुमने कहा था के  हम एक ही हे तो अब,अपने  बराबर मुझे  भी  कर्  दो  न,
आओ  पास  बैठो  कुछ  बातें  करो  ,कभी मेरे   दिल  के  जखमो  को भी   भर दिया करो    , क्यों कहना  भी  पड़ता  हे  हर बार हमे  , के जितना वक्त दोस्तों और मोबाइल में बिताते हो ,कभी तो यूं  इन अनकही  बातों को भी  समझ लिआ करो ना   ,तुमने  कहा था हम एक ही हैं तो अब अपने  बराबर कर  दो  ना , तुम  टीवी में ,,क्रिकेट भी अपना देखो , ,,,, कभी सीरियल लगा  दूँ क्या? ,बस यही पूछ लिया करो न  , ,,   ऐसे  में, ही कभी  कभी ,मेरे घर पर नही रहने के वक्त, खंगालना.ना. मेरा कमरा ,,टटोलना.ना .मेरी   हर एक चीज़ ,,,, बिन ताले के  मेरा सारा  सामान.. बिखरा पड़ा है, मेरे तमाम ख्वाब कभी,, जा कर देखो न ,,,,टेबल पर.. मेरे,, देखना कुछ रंग पड़े होंगे,,इस रंगों  की तरह,, कभी,, अपनी जिंदगी को  भी  ..रंगीन कर दो ना,,  कहा   जाता है न  हम दोनों का  भविष्य   एक ही  है, ,तो,,ये  बात को सच  भी साबित करो ना , हम,एक दूसरे की परछाई सी  बनकर रहें, क्यों ना,ऐसा कुछ करो ना     ,तुम  भी नए से हो जाओ अब, ,,नयी सी  ,,मुझको  भी  होने   दो न,,कभी ऐसा लगता है.मुझसे खुशनसीब तो    मेरे लिखे ये लफ्ज..हैं....
जिनको कुछ देर तक पढ़ेगी तो सही,, ये निगाहे...., कुछ ऐसी ही  ख़ुशी  की  वजह  बनो ना.....  ..मुस्कराने के मकसद न ढूंढ  मेरे साथी , वरना जिंदगी यूँ ही कट जाएगी,,,कभी बेवजह भी अपने साथी के साथ मुस्कराकर देख,  तेरे साथ साथ ,अपनों की भी  ,,जिंदगी,भी मुस्करायेगी

#Inspired by Divya&Rahul dutta poem*