उसके,दो जवान बेटे, मर गए। दस साल पहले पति भी चल बसे। दौलत के नाम पर बची एक सिलाई मशीन। वो,सत्तर साल की बूढी *पारो* गाँव भर के कपड़े सिलती रहती। बदले में कोई चावल दे जाता , तो कोई गेहूँ या बाजरा। सिलाई करते समय उसकी कमजोर गर्दन ,डमरू की तरह हिलती रहती। दरवाजे के सामने से जो भी निकलता वह ,उन्हें ‘ राम – राम ‘ कहना कभी नही भूलती।
दया दिखाने वालों से उसे हमेशा चिढ रहती। छोटे – छोटे बच्चे दरवाजे पर आकर ऊधम मचाते , लेकिन पारो उनको कभी बुरा भला न कहकर उल्टे खुश होती।गांव के,प्रधान जी कन्या पाठशाला के लिए चन्दा इकट्ठा करने निकले ,तो पारो के घर की हालत देखकर पिघल गए — क्यों दादी , तुम हाँ कह दो, तो तुम्हे बुढ़ापा पेंशन दिलवाने की कोशिश करूँ।
पारो घायल – सी होकर बोली_ भगवान ने दो हाथ दिए हैं। मेरी ये सिलाई मशीन , रोटी दे ही देती है। मैं किसी के आगे हाथ क्यों फैलाऊँगी। क्या तुम यही कहने आये थे ? तो वो बोले,मैं तो कन्या पाठशाला बनवाने के लिए चन्दा लेने आया था। पर तेरी हालत देखकर क्या बोलू,तू कन्या पाठशाला बनवाएगा ? पारो के झुर्रियों भरे चेहरे पर सुबह की धूप -सी खिल गई।
हाँ , एक दिन जरूर बनवाऊँगा दादी। बस तेरा आशीष चाहिए।”पारों घुटनों पर हाथ देकर टेककर उठी। ताक पर रखी जंगखाई संदूकची उठा लाई। काफी देर उलट -पुलट करने पर बटुआ निकला। उसमें से तीन सौ रुपये निकालकर प्रधान जी की हथेली पर रख दिए _बेटे , सोचा था मरने से पहले गंगा नहाने जाऊँगी। उसी के लिए के पैसे जोड़कर रखे थे।तब ये रुपये मुझे क्यों दे रही हो ? गंगा नहाने अब क्या नहीं जाओगी ?
बेटे , तुम पाठशाला बनवाओ। इससे बड़ा गंगा – स्नान और क्या होगा”-कह कर पारो फिर कपड़े सीने में जुट गई। ओर प्रधान निशब्द सा उन्हें ताकता रह गयॉर उसके स्वाभिमान के आगे नतमस्तक हो गया