सोमवार, 7 मई 2018

*दर्द कागज़ पर,* 📝

*पता नहीं क्यों*
*मैं बैचैन थी,*
          *रातभर लिखती रही..*
*छू रहे थे सब,*⚡
          *बुलंदियाँ आसमान की,*
*मैं सितारों के बीच,*✨
        🌙 *चाँद की तरह छिपती रही..*
*अकड होती तो,*
          *कब का बांध टूट गया होता,*
*मैं था नाज़ुक डाली,*
          *जो सबके आगे झुकती रही.*
*बदले यहाँ लोगों ने,*
         *रंग अपने-अपने ढंग से,*
*रंग मेरा भी निखरा पर,*
         *मैं मेहँदी की तरह पीसती रही..*
*जिनको जल्दी थी,*
         *वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,*
*मैं समन्दर से राज,*
         *गहराई के सीखती रही..!!*
*"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...*
*तू गुमान न कर.
..सभीको समय समझाऐगा ,
*बुलंदियाँ तू, छू हज़ार, मगर...*
*उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर.*
*कुछ बेतुके झगड़े*, होते रहते हैं,
* इन्हें,कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने*
*जहाँ गलती नही, भी थी मेरी*,
*फिर भी🙏🏻🙏🏻 हाथ जोड़ दिए मैंने*
*दर्द कागज़ पर यूं लिखकर मेंनें*
*समझदारी कर ली अपने आप से*