मंगलवार, 23 जनवरी 2018

उलझनें

उलझनें है बहुत उलझनें है बहुत
             सुलझा लिया करती हूँ
फोटो खिंचवाते वक्त मैं अक्सर
            मुस्कुरा दिया करती हूँ.....!

क्यों नुमाइश करूं मैं अपने
            माथे पर शिकन की
मैं अक्सर मुस्कुरा के
           इन्हें मिटा दिया करती हूँ

क्योंकि

जब लड़ना है खुद को खुद ही से......!
तो हार और जीत में कोई फर्क नहीं रखती हूं.....!

हारूँ या जीतूं कोई रंज नहीं है
         कभी खुद को जिता देती हूँ
कभी खुद ही जीत जाती हूं
         *इसलिए भी मुस्कुरा दिया करती हूँ* 🙏😊
             सुलझा लिया करती हूँ
फोटो खिंचवाते वक्त मैं अक्सर
            मुस्कुरा दिया करती हूँ.....!

क्यों नुमाइश करूं मैं अपने
            माथे पर शिकन की
मैं अक्सर मुस्कुरा के
           इन्हें मिटा दिया करती हूँ

क्योंकि

जब लड़ना है खुद को खुद ही से......!
तो हार और जीत में कोई फर्क नहीं रखती हूं.....!

हारूँ या जीतूं कोई रंज नहीं है
         कभी खुद को जिता देती हूँ
कभी खुद ही जीत जाती हूं
         *इसलिए भी मुस्कुरा दिया करती हूँ* 🙏😊

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

पता ही नहीं चला***

*समय चला, पर कैसे चला... *
            *पता ही नहीं चला...*
       *जिन्दगी कैसे गुजरती गई...*
            *पता ही नहीं चला...*
ज़िन्दगी की आपाधापी में,
कब निकली उम्र हमारी,
*पता ही नहीं चला।*
कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे,
कब कंधे तक आ गए,
*पता ही नहीं चला।*
एक कमरे से
शुरू हुआ सफर,
कब बंगले तक आ गया,
*पता ही नहीं चला।*
साइकिल के
पैडल मारते हुए,
हांफते थे उस वक़्त,
अब तो, बड़ी
कारों में घूमने लगे हैं,
*पता ही नहीं चला।*
हरे भरे पेड़ों से
भरे हुए जंगल थे तब,
कब हुए कंक्रीट के,
*पता ही नहीं चला।*
कभी थे ,जिम्मेदारी
माँ बाप की हम,
कब बच्चों के लिए
हुए जिम्मेदार हम,
*पता ही नहीं चला।*
एक दौर था जब
दिन में भी बेखबर सो जाते थे,
कब रातों की उड़ गई नींद,
*पता ही नहीं चला।*
बनेंगे कब हम माँ बाप
सोचकर कटता नहीं था वक़्त,
कब हमारे बच्चों को बच्चे हो गए,
*पता ही नहीं चला।*
जिन काले घने
बालों पर इतराते थे हम,
कब रंगना शुरू कर दिया,
*पता ही नहीं चला।*
होली और दिवाली मिलते थे,
यार, दोस्तों और रिश्तेदारों से,
कब छीन ली ,प्यार भरी
मोहब्बत ,आज दे दौर ने,
*पता ही नहीं चला।*
दर दर भटके हैं,
नौकरी की खातिर खुद,
कब करने लगे
लोग नौकरी हमारे यहाँ,
*पता ही नहीं चला।*
बच्चों के लिए
कमाने, बचाने में
इतने मशगूल हुए हम,
कब बच्चे हमसे हुए दूर,
*पता ही नहीं चला।*
भरे पूरे परिवार से
सीना चौड़ा रखते थे हम,
कब परिवार हम दो पर सिमटा,
*।।। पता ही नहीं चला ।।।*

सोमवार, 1 जनवरी 2018

हिसाब क्या रखें ..

*समय की* ..
*इस अनवरत बहती धारा में* ..
अपने चंद सालों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!
*जिंदगी ने* ..
*दिया है जब इतना* ..
*बेशुमार यहाँ* ..
तो फिर ..
जो नहीं मिला उसका
हिसाब क्या रखें .. !!
*दोस्तों ने .. दिया है* ..
*इतना प्यार यहाँ* ..
तो दुश्मनी ..
की बातों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!
*दिन हैं .. उजालों से* ..
*इतने भरपूर यहाँ* ..
तो रात के अँधेरों का ..
हिसाब क्या रखे .. !!
*खुशी के दो पल* ..
*काफी हैं .. खिलने के लिये* ..
तो फिर .. उदासियों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!
*हसीन यादों के मंजर* ..
*इतने हैं जिंदगानी में* ..
तो चंद दुख की बातों का .. हिसाब क्या रखें .. !!
*मिले हैं फूल यहाँ* ..
*इतने किन्हीं अपनों से* ..
फिर काँटों की .. चुभन का हिसाब क्या रखें .. !!
*चाँद की चाँदनी* ..
*जब इतनी दिलकश है* ..
तो उसमें भी दाग है ..
ये हिसाब क्या रखें .. !!
*जब खयालों से .. ही पुलक* ..
*भर जाती हो दिल में ..*
तो फिर मिलने .. ना मिलने का .. हिसाब क्या रखें .. !!
*कुछ तो जरूर .. बहुत अच्छा है .. सभी में*  ..
फिर जरा सी .. बुराइयों का .. हिसाब क्या रखें .. !
🙏🏻🙏🏻💐💐