शनिवार, 30 दिसंबर 2017

फिर भी**

*दर्द कागज़ पर,*
          *मेरा बिकता रहा,*
*बैचैन थी मैं,*
          *रातभर लिखती रही..*
*छू रहे थे सब,*
          *बुलंदियाँ आसमान की,*
*मैं सितारों के बीच,*
          *चाँद की तरह छिपती रही..*
*दरख़्त होता तो,*
          *कब का टूट गई होती मैं,
* नाज़ुक डाली सी थी मैं*
          *जो सबके आगे झुकती रही..*
*बदले यहाँ लोगों ने,*
         *रंग अपने-अपने ढंग से,*
*रंग मेरा भी निखरा, पर,*
         * मेहँदी की तरह पीसती रही.मैं.*
*जिनको जल्दी थी,*
         *वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,*
*मैं समन्दर से  गहराईयों के राज,*
         *गहराई से , से सीखती रही..!!*
*"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...*
*तू गुमान न कर...*
*बुलंदियाँ छू हज़ार, मगर...*
*उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर.*
*कुछ बेतुके झगड़े*,
*कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने*
*जहाँ गलती नही ,भी थी मेरी*,
*फिर भी आदतन, हाथ जोड़ दिए मैंने*