*दर्द कागज़ पर,*
*मेरा बिकता रहा,*
*बैचैन थी मैं,*
*रातभर लिखती रही..*
*छू रहे थे सब,*
*बुलंदियाँ आसमान की,*
*मैं सितारों के बीच,*
*चाँद की तरह छिपती रही..*
*दरख़्त होता तो,*
*कब का टूट गई होती मैं,
* नाज़ुक डाली सी थी मैं*
*जो सबके आगे झुकती रही..*
*बदले यहाँ लोगों ने,*
*रंग अपने-अपने ढंग से,*
*रंग मेरा भी निखरा, पर,*
* मेहँदी की तरह पीसती रही.मैं.*
*जिनको जल्दी थी,*
*वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,*
*मैं समन्दर से गहराईयों के राज,*
*गहराई से , से सीखती रही..!!*
*"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...*
*तू गुमान न कर...*
*बुलंदियाँ छू हज़ार, मगर...*
*उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर.*
*कुछ बेतुके झगड़े*,
*कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने*
*जहाँ गलती नही ,भी थी मेरी*,
*फिर भी आदतन, हाथ जोड़ दिए मैंने*
*मेरा बिकता रहा,*
*बैचैन थी मैं,*
*रातभर लिखती रही..*
*छू रहे थे सब,*
*बुलंदियाँ आसमान की,*
*मैं सितारों के बीच,*
*चाँद की तरह छिपती रही..*
*दरख़्त होता तो,*
*कब का टूट गई होती मैं,
* नाज़ुक डाली सी थी मैं*
*जो सबके आगे झुकती रही..*
*बदले यहाँ लोगों ने,*
*रंग अपने-अपने ढंग से,*
*रंग मेरा भी निखरा, पर,*
* मेहँदी की तरह पीसती रही.मैं.*
*जिनको जल्दी थी,*
*वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,*
*मैं समन्दर से गहराईयों के राज,*
*गहराई से , से सीखती रही..!!*
*"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...*
*तू गुमान न कर...*
*बुलंदियाँ छू हज़ार, मगर...*
*उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर.*
*कुछ बेतुके झगड़े*,
*कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने*
*जहाँ गलती नही ,भी थी मेरी*,
*फिर भी आदतन, हाथ जोड़ दिए मैंने*