शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

बड़ा छोटा


एक थे पण्डित जी और एक थी पण्डिताइन। पण्डित जी के मन मेंजातिवाद कूट-कूट कर भरा था। परन्तु पण्डिताइन समझदार थी। समाज की विकृत रूढ़ियों को नही मानती थी।एक दिन पण्डितजी को प्यास लगी।संयोगवश् घर मेंपानी नही था। इसलिए पण्डिताइन पड़ोस सेपानी ले आयी। पानी पीकर पण्डित जी नेपूछा।) पण्डित जी- कहाँ से लाई हो। बहुतठण्डा पानी है। पण्डिताइन जी- पड़ोस केकुम्हार के घर से।(पण्डित जी ने यह सुन करलोटा फेंक दिया और उनके तेवर चढ़गये। वे जोर-जोर से चीखनेलगे।)पण्डित जी- अरी तूनेतो मेरा धर्म भ्रष्ट करदिया। कुम्हार के घरका पानी पिला दिया।(पण्डिताइन भय से थर-थरकाँपने लगी, उसनेपण्डित जी से माफी माँग ली।) पण्डिताइन- अब ऐसी भूल नही होगी।(शाम को पण्डित जी जबखाना खाने बैठेतो पण्डिताइन ने उन्हें सूखी रोटियाँ परस दी।)पण्डित जी- सागनही बनाया।पण्डिताइन जी-बनाया तो था, लेकिन फेंक दिया। क्योंकि जिसहाँडी में वो पकाया था,वो तो कुम्हार के घर की थी।पण्डित जी- तू तो पगली है।कहीं हाँडी में भी छूतहोती है?(यह कह कर पण्डित जी नेदो-चार कौर खायेऔर बोले-)पण्डित जी- पानी तो ले आ।पण्डिताइन जी-पानी तो नही है जी।पण्डित जी- घड़े कहाँ गये?पण्डिताइन जी- वो तो मैंने फेंक दिये। कुम्हार केहाथों से बने थे ना।(पण्डित जी ने फिर दो-चार कौर खाये औरबोले-)पण्डित जी- दूध ही ले आ।उसमें ये सूखी रोटी मसल करखा लूँगा।पण्डिताइन जी- दूध भी फेंकदिया जी। गाय को जिस नौकर ने दुहा था, वह भी कुम्हार ही था।पण्डित जी- हद कर दी! तूने तो, यह भी नही जानती दूध में छूत नही लगती।पण्डिताइन जी- यहकैसी छूत है जी! जो पानी में तो लगती है,परन्तु दूध में नही लगती।(पण्डित जी के मन में
आया कि दीवार से सरफोड़ ले, गुर्रा करबोले-)पण्डित जी- तूने मुझे चौपटकर दिया। जा अब
आँगन में खाट डालदे। मुझे नींद आ रही है।पण्डिताइन जी- खाट! उसेतो मैंने तोड़ कर फेंक
दिया। उसे नीची जात के आदमी ने बुना था ना।(पण्डित जी चीखे!)पण्डित जी- सब मे आग
लगा दो। घर में कुछ बचा भी है या नही।पण्डिताइन जी- हाँ! घर बचा है। उसेभी तोड़ना बाकी है।
क्योकि उसे भी तो नीची जाति केमजदूरों नेही बनाया है।(पण्डित जी कुछ देर गुम-सुम खड़े रहे! फिर
बोले-)पण्डित जी- तूने मेरी आँखेंखोल दीं। मेरी ना-समझी से ही सब गड़-बड़ हो रही थी।
कोईभी छोटा बड़ा नही है।सभी मानव समान हैं ।

प्रेम ,धन और सफलता

एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन
संतों को अपने घर के सामने देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी।
औरत ने कहा – “कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।”
संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?”
औरत ने कहा – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।”
संत बोले – “हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।”
शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब
बताया।
औरत के पति ने कहा – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और
उनको आदर सहित बुलाओ।”
औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा।
संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।”
“पर क्यों?” – औरत ने पूछा।
उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” – फ़िर दूसरे
संतों की ओर इशारा कर के कहा – “इन दोनों के नाम सफलता और
प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है। आप घर के अन्य
सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।”
औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया।
उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और बोला – “यदि ऐसा है
तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घर खुशियों से
भर जाएगा।”
लेकिन उसकी पत्नी ने कहा – “मुझे लगता है कि हमें
सफलता को आमंत्रित करना चाहिए।”
उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई
और बोली – “मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित
करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।”
“तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए” – उसके
माता-पिता ने कहा।
औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा – “आप में से
जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में प्रवेश कर भोजन गृहण करें।”
प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने
लगे।
औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम
को आमंत्रित किया था। आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?”
उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक
को आमंत्रित किया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेम
को आमंत्रित किया है। प्रेम कभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-
जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

***विनम्रता का रहस्य***

एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?' शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा।

कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भीदाँत शेष नहीं बचा। शायद कई वर्षों से आपका एक भी दाँत नहीं है।' साधु बोले-'देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।'

सबने उत्तर दिया-'हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।' इस पर सबने कहा-'पर यह हुआ कैसे?' मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुईहै। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभसे पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?'

शिष्यों ने उत्तर दिया-'हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।'

उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- 'यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु.......मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके।

दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'