एक थे पण्डित जी और एक थी पण्डिताइन। पण्डित जी के मन मेंजातिवाद कूट-कूट कर भरा था। परन्तु पण्डिताइन समझदार थी। समाज की विकृत रूढ़ियों को नही मानती थी।एक दिन पण्डितजी को प्यास लगी।संयोगवश् घर मेंपानी नही था। इसलिए पण्डिताइन पड़ोस सेपानी ले आयी। पानी पीकर पण्डित जी नेपूछा।) पण्डित जी- कहाँ से लाई हो। बहुतठण्डा पानी है। पण्डिताइन जी- पड़ोस केकुम्हार के घर से।(पण्डित जी ने यह सुन करलोटा फेंक दिया और उनके तेवर चढ़गये। वे जोर-जोर से चीखनेलगे।)पण्डित जी- अरी तूनेतो मेरा धर्म भ्रष्ट करदिया। कुम्हार के घरका पानी पिला दिया।(पण्डिताइन भय से थर-थरकाँपने लगी, उसनेपण्डित जी से माफी माँग ली।) पण्डिताइन- अब ऐसी भूल नही होगी।(शाम को पण्डित जी जबखाना खाने बैठेतो पण्डिताइन ने उन्हें सूखी रोटियाँ परस दी।)पण्डित जी- सागनही बनाया।पण्डिताइन जी-बनाया तो था, लेकिन फेंक दिया। क्योंकि जिसहाँडी में वो पकाया था,वो तो कुम्हार के घर की थी।पण्डित जी- तू तो पगली है।कहीं हाँडी में भी छूतहोती है?(यह कह कर पण्डित जी नेदो-चार कौर खायेऔर बोले-)पण्डित जी- पानी तो ले आ।पण्डिताइन जी-पानी तो नही है जी।पण्डित जी- घड़े कहाँ गये?पण्डिताइन जी- वो तो मैंने फेंक दिये। कुम्हार केहाथों से बने थे ना।(पण्डित जी ने फिर दो-चार कौर खाये औरबोले-)पण्डित जी- दूध ही ले आ।उसमें ये सूखी रोटी मसल करखा लूँगा।पण्डिताइन जी- दूध भी फेंकदिया जी। गाय को जिस नौकर ने दुहा था, वह भी कुम्हार ही था।पण्डित जी- हद कर दी! तूने तो, यह भी नही जानती दूध में छूत नही लगती।पण्डिताइन जी- यहकैसी छूत है जी! जो पानी में तो लगती है,परन्तु दूध में नही लगती।(पण्डित जी के मन में
आया कि दीवार से सरफोड़ ले, गुर्रा करबोले-)पण्डित जी- तूने मुझे चौपटकर दिया। जा अब
आँगन में खाट डालदे। मुझे नींद आ रही है।पण्डिताइन जी- खाट! उसेतो मैंने तोड़ कर फेंक
दिया। उसे नीची जात के आदमी ने बुना था ना।(पण्डित जी चीखे!)पण्डित जी- सब मे आग
लगा दो। घर में कुछ बचा भी है या नही।पण्डिताइन जी- हाँ! घर बचा है। उसेभी तोड़ना बाकी है।
क्योकि उसे भी तो नीची जाति केमजदूरों नेही बनाया है।(पण्डित जी कुछ देर गुम-सुम खड़े रहे! फिर
बोले-)पण्डित जी- तूने मेरी आँखेंखोल दीं। मेरी ना-समझी से ही सब गड़-बड़ हो रही थी।
कोईभी छोटा बड़ा नही है।सभी मानव समान हैं ।