रविवार, 31 दिसंबर 2023

*बरसों का सफर*

 अपनी सत्तर बरस की मां को देखकर,

क्या सोचा है तुमने कभी,

कि वो भी कभी कालेज में टाईट कुर्ती 

और स्लैक्स पहन कर जाया करती थी !

तुम हरगिज़ नहीं सोच सकते कि

तुम्हारी माँ जब अपने घर के आँगन में

छमछम कर चहकती हुई ऊधम मचाती

दौड़ा करती तो घर का कोना-कोना 

उस आवाज़ से गुलज़ार हो उठता था !

तुम नहीं जानते कि 'ट्विस्ट' डांस वाली प्रतियोगिता में,

जीते थे उन्होंने अनेकों बार प्रथम पुरुस्कार !

किशोरावस्था में वो जब भी कभी

अपने गीले बालों को तौलिए में लपेटे 

छत पर फैली गुनगुनी धूप में सुखाने जाया करती,

तो न जाने कितनी ही पतंगें 

आसमान में कटने लगा करती  थी !

क्या सोचा है तुमने कभी कि अट्ठारह बरस की मां ने

तुम्हारे बीस बरस के पिता को 

जब वरमाला पहनाई तो मारे लाज से 

दुहरी होकर गठरी बन, उन्होंने अपने वर को 

नज़र उठाकर भी नहीं देखा था!

तुमने तो ये भी नहीं सोचा होगा कि 

तुम्हारे आने की दस्तक देती उस

प्रसव पीड़ा के उठने पर अस्पताल जाने से पहले 

उन्होंने माँग कर बेसन की खट्टी सब्जी खाई थी !

तुम सोच सकते हो क्या कि कभी,

अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि

तुम्हें मानकर , अपनी सारी शैक्षणिक डिग्रियां 

जिस संदूक के अखबार के कागज़ के नीचे रख 

एकबार तालाबंद की थी, उस संदूक की चाबी 

आजतक उन्होंने नहीं ढूंढी !

और तुम उनके झुर्रीदार कांपते हाथों, क्षीण याद्दाश्त, मद्धम नजर और झुकी कमर को देख, 

उनसे कतराकर ,

खुद पर इतराते हो ?

ये बरसों का सफर है !

तुम सोच सकते भी नहीं ,,

🙏🙏

सुजाता,,,

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

*संकीर्ण विचार*

 जब अर्चना इवनिंग वॉक से घर लौटीं, तो उनके साथ एक सज्जन भी थे, जो अर्चना के ही हमउम्र थे. अर्चना अपनी बहू सांची से उस सज्जन का परिचय कराती हुई बोलीं, "सांची, ये हैं विवेक गुप्ता, मेरे कॉलेज फ्रेंड."

यह सुन सांची को हैरानी मिश्रित ख़ुशी हुई, इतने सालों में कभी भी अर्चना ने इस नाम का ज़िक्र नहीं किया था. हां, सांची की शादी के वक़्त अवश्य कुछ महिलाओं से अर्चना ने सांची को यह कहकर मिलवाया था कि ये मेरी स्कूल और कॉलेज फ्रेंड्स हैं, लेकिन उनमें कोई भी पुरुष मित्र नहीं था.

सांची ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था और ना उसे कभी ऐसा लगा कि उसकी सासू मां का भी कोई पुरुष मित्र होगा या हो सकता है. यहां इस भोपाल शहर में अर्चना की कुछ सहेलियां ज़रूर थीं, जो अक्सर घर आती-जाती रहती थीं, लेकिन वे सभी आस-पड़ोस की महिलाएं और अर्चना के स्वर्गवासी पति के मित्र व सहकर्मी की पत्नियां ही थीं, जिन्हें सांची बहुत अच्छी तरह से जानती थी. सांची के लिए ये विवेक गुप्ता नया नाम था, लेकिन उसके बावजूद सांची ने उस शख़्स को पूरे सम्मान के साथ बैठने का आग्रह किया और उसके बाद अर्चना से बोली, "मम्मीजी, आप बातें कीजिए मैं चाय लेकर आती हूं."

सांची इतना कहकर मुड़ने ही वाली थी कि अर्चना बोली, "सांची, चाय केवल मेरे लिए ही लाना, विवेक के लिए ब्लैक कॉफी ले आओ." ऐसा कहकर अर्चना हंसती हुई विवेक की ओर देखकर बोली, "क्यों ठीक कह रही हूं ना." इस पर विवेक भी हंसता हुआ बोला, "अरे वाह! अर्चु आज भी तुम्हें मेरी पसंद याद है."

अर्चना भी चहकती हुई बोली, "हां, भला कैसे भूल सकती हूं. कॉलेज कैंटीन में हमने घंटों जो साथ बिताए हैं."

अर्चना का इतना कहना था कि दोनों ठहाके मार कर हंसने लगे. विवेक के मुंह से अर्चु और अर्चना से कॉलेज कैंटीन सुन कर कुछ पल के लिए सांची के पांव की गति स्वत: ही धीमी हो गई और उसके कान खड़े हो गए. इधर अर्चना और विवेक इस बात से बेख़बर कॉलेज में बिताए अपने दिनों को स्मरण करके आनंदित हो रहे थे. उधर सांची किचन में ज़रूर थी, परन्तु उसका पूरा ध्यान हॉल में बैठे अर्चना और विवेक की बातों की ओर ही था. यह अलग बात थी कि उसे दोनों के बीच होते वार्तालाप ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे, केवल हंसने की आवाज़ ही सांची के कानों तक पहुंच रही थी.

चाय, कॉफी और कुछ नमकीन के साथ जब सांची हॉल में पहुंची, तो उसने देखा अर्चना और विवेक बिंदास किसी बात पर हंस रहे हैं. अर्चना के चेहरे पर ऐसी हंसी सांची तभी देखती, जब अर्चना की स्कूल व कॉलेज फ्रेंड मालिनी आंटी अर्चना से मिलने आती, वरना बाकी लोगों के संग मिलकर अर्चना के होंठों पर मुस्कान तो ज़रूर होती, किन्तु यह बेबाक़पन और बिंदास हंसी कभी दिखाई नहीं देती.

आज अर्चना की आंखों में चमक और चेहरे पर निश्छल हंसी थी. यह देख सांची को समझने में वक़्त नहीं लगा कि जो शख़्स उसकी सासू मां के साथ बैठा है वह उसकी सासू मां का सच्चा व गहरा मित्र है, क्योंकि सांची यह बात भली-भांति जानती थी कि कोई भी इंसान दिल खोलकर केवल अपने सच्चे दोस्त के समक्ष ही हंसता या फिर रोता है.

काफ़ी देर गप्पे मारने के पश्चात विवेक बोला, "अच्छा अर्चु अब मैं चलता हूं, कल मिलते हैं इवनिंग वॉक पर." इतना कहकर विवेक ने दरवाज़े का रूख किया और अर्चना अपने कमरे की ओर चली गईं. विवेक का घर से बाहर निकलना हुआ और उसी वक़्त अर्चना का बेटा यानी सांची के पति संदीप का आना हुआ. अपने घर से किसी अनजान व्यक्ति को निकलता देख संदीप को थोड़ा आश्चर्य हुआ. घर के अंदर आते ही संदीप ने सांची से पूछा, "ये हमारे घर से अभी-अभी जो बंदा बाहर गया वो कौन था..?"

संदीप का ऑफिस बैग अपने हाथों में लेती हुई सांची बोली, "ये विवेक गुप्ताजी थे मम्मीजी के कॉलेज फ्रेंड."


यह सुनते ही संदीप के चेहरे का भाव थोड़ा बदल गया और वह आश्चर्य से बोला, "मम्मी के फ्रेंड? विवेक गुप्ता! यह नाम तो पहले कभी नहीं सुना, लेकिन ये आए क्यों थे?"

"ये आए नहीं थे, मम्मीजी इन्हें लेकर आई थीं."

"क्यों..?" अभी सांची इस क्यों का कोई जवाब संदीप को दे पाती, इससे पहले ही अर्चना हॉल में आ पहुंचीं और संदीप के क्यों का जवाब देती हुई बोली, "क्योंकि विवेक गुप्ता मेरा फ्रेंड है और उसे मेरा घर देखना था."

अर्चना से यह जवाब सुन संदीप स्वयं को संयमित करते हुए बोला, "आपका फ्रेंड, लेकिन मम्मी आज से पहले तो ये हमारे घर कभी नहीं आए और ना ही आपने कभी इनकी चर्चा की, फिर आज अचानक…"

इतना कहकर संदीप बीच में ही रुक गया, तभी अर्चना संदीप की बातों व आंखों में संदेह देखकर बोलीं, "अचानक नहीं बेटा पिछले एक सप्ताह से विवेक को मैं घर लाने की सोच रही थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था. आज समय मिला, तो सोचा ले चलती हूं. और रही बात पहले कभी विवेक की ज़िक्र ना करने की, तो ऐसा है कि कभी ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं आया कि मैं विवेक की चर्चा करती. वैसे भी कॉलेज के बाद विवेक ऑउट ऑफ इंडिया चला गया और मेरी शादी हो गई. अब जा कर मिला है इतने सालों बाद. तुम्हें पता है विवेक भी हमारी ही सोसायटी के ए विंग में अपने बेटा-बहू और पोते के साथ रहता है."

अर्चना अपने बेटे संदीप को कुछ इस तरह से सफ़ाई दे रही थी मानो उसने विवेक को घर बुलाकर कोई गुनाह कर दिया हो. तभी सांची बोली, "अच्छा हां, ए विंग में मैंने सुना तो है कोई गुप्ता फैमिली आई है, तो क्या ये विवेक अंकल की फैमिली है." अभी यह सारी बातें हो ही रही थी कि संदीप वहां से चला गया और बात आई गई हो गई.

अब रोज़ इवनिंग वॉक पर अर्चना और विवेक का सोसाइटी पार्क पर मिलना, बातें करना, साथ वक़्त गुज़ारना अर्चना के बेटे संदीप को नागवार गुज़रने लगा और वही स्थिति विवेक के बेटा-बहू की भी थी. उन्हें भी अर्चना और विवेक की दोस्ती अपनी बदनामी से ज़्यादा कुछ नही लग रही थी.

संदीप ने सांची से क‌ई बार कहा कि वह अर्चना को विवेक गुप्ता से दूर रहने को कहे, लेकिन सांची हर बार संदीप की बातों को अनसुना कर देती, क्योंकि उसे कभी भी नहीं लगा कि अर्चना और विवेक की दोस्ती में कुछ ग़लत है. सोसाइटी में भी अब अर्चना और विवेक को लेकर कानाफूसी और तरह-तरह की बातें होने लगी, जो उड़ती हुई दोनों परिवारों के कानों तक भी पहुंचती, परंतु अर्चना और विवेक इन बातों से बेख़बर अपनी दोस्ती और पुराने दोस्तों के संग रियूनियन पार्टी प्लान करने में लगे हुए थे. एक शाम अचानक इन्हीं सब बातों को लेकर संदीप ग़ुस्से से तमतमाता हुआ घर पहुंचा, तो उसने देखा अर्चना और सांची पैकिंग कर रही हैं. यह देख संदीप ग़ुस्से में सांची से बोला, "यह सब क्या हो रहा है और तुम ये मम्मी का सूटकेस क्यों पैक कर रही हो."

संदीप को इस प्रकार ग़ुस्से में देख, उसे शांत कराती हुई सांची प्यार से समझाते हुए संदीप से बोली, "मम्मीजी सागर जा रही है रियूनियन पार्टी के लिए."

यह सुनते ही संदीप का पारा चढ़ गया और वह ऊंची आवाज़ में बोला, "उस विवेक गुप्ता के साथ… मम्मी आप का दिमाग़ तो ठिकाने पर है. ज़रा सोचिए लोग क्या कहेंगे. आपको कुछ पता भी है सोसाइटी में आपके और उस विवेक गुप्ता के बारे में लोग क्या-क्या बातें बना रहे हैं. अपनी नहीं तो कम-से-कम हमारी इज्ज़त का तो ख़्याल कीजिए."

अभी संदीप अपने मन की भड़ास अर्चना पर निकाल ही रहा था कि विवेक के बेटा-बहू अमित और साक्षी भी अर्चना के घर आ धमके और अर्चना को भला-बुरा कहने लगे.

विवेक का बेटा अमित अर्चना पर आरोप लगाते हुए बोला, "मेरी मम्मी को दिवंगत हुए सालों बीत गए हैं, लेकिन मेरे पापा ने कभी भी किसी औरत की तरफ़ आंख उठाकर नहीं देखा और आज आपसे मिलते ही अपना मान-सम्मान सब भुला कर, हमारी मुंह पर कालिख पोत कर आपके साथ सागर जाने की तैयारी कर रहे हैं."

अर्चना का अपना बेटा संदीप भी दूसरे लोगों की कही बातों में आकर अपनी मां का अपमान कर रहा था, सब मिलकर अर्चना पर लांछन लगाने और उसके चरित्र पर उंगली उठा रहे थे, अर्चना डबडबाई आंखों से ख़ुद को कठघरे में खड़े किसी मुजरिम की तरह चुपचाप सब सुन रही थी. यह देखकर सांची से रहा नहीं गया और वह चीखती हुई बोली, "बस करिए… आप में किसी को भी इस तरह मम्मीजी पर लांछन लगाने का कोई अधिकार नहीं है. मम्मीजी और विवेक अंकल अच्छे दोस्त हैं. जब एक स्त्री मां हो सकती है, बेटी हो सकती, बहन हो सकती है, प्रेमिका और पत्नी हो सकती है, तो दोस्त क्यों नहीं..? और वह क्यों अपने दोस्त के साथ कहीं नहीं जा सकती."


सांची से यह सब सुन विवेक की बहू साक्षी की भी आंखें खुल गई और वह भी जो अब तक अर्चना पर आरोप लगा रही थी अर्चना के संग आ खड़ी हुई और अपने पति अमित से बोली, "सांची बिल्कुल सही कह रही है, आंटीजी क्यों नहीं जा सकती पापाजी के साथ. जब आप अपनी रियूनियन पार्टी में अपनी फ्रैंड शिल्पा के साथ जा सकते हो तो पापाजी और मम्मीजी भी जा सकते हैं."

सांची और साक्षी को अर्चना के पक्ष में देख कर संदीप बौखला गया और गुर्राता हुआ बोला, "बंद करो तुम दोनों अपना ज्ञान का पिटारा. ईश्वर आराधना और हरी भजन करने की उम्र में अपने पुरुष या महिला मित्र के साथ घूमना-फिरना शोभा नहीं देता और ना ही एक मां को पुरुष मित्र बनाने की इजाज़त हमारा समाज देता है."

संदीप की संकीर्ण विचारों को सुन कर अर्चना का हृदय द्रवित हो उठा. उसकी आंखों में अब तक ठहरा पानी बह निकला और वह अपना सूटकेस पैक करती हुई सोचने लगी कि कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं, लेकिन आज भी स्त्री-पुरुष को लेकर हमारे समाज की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन अब बदलना होगा… यदि हम बदलाव चाहते हैं, तो हमें स्वयं बदलाव की ओर अपना पहला कदम आगे बढ़ाना होगा. इसी सोच के साथ अर्चना हाथों में सूटकेस लेकर घर से निकलती हुई सांची और साक्षी से बोली, "बेटा, मेरी गाड़ी का समय हो गया है मैं निकलती हूं." 

बुधवार, 15 नवंबर 2023

*समय का दान *

    मीना इतवार को तो तेरी छुट्टी होती है फिर कहां से आ रही है। पिछले रविवार भी मैंने देखा था सुबह सुबह भाग रही थी ।"सरोज ने अपनी पड़ोसन मीना से पूछा ।

"बस कुछ खास नहीं । मैं हर इतवार को महिला वृद्धाश्रम जाती हूं ।"मीना ने कहा ।

"क्या  तेरा कोई रिश्तेदार है वहां?" सरोज ने जिज्ञासा से पूछा। 

"भगवान न करें कोई रिश्तेदार वहां जाए।" मीना ने आसमान की तरफ हाथ जोड़ते हुए ठंडी सी आवाज में कहा। 

"फिर रिश्तेदार नहीं तो रोज-रोज क्यों जाती है?" सरोज ने फिर प्रश्न दागा।

" अब तो समझो रिश्तेदार ही है।" "क्या मतलब?" सरोज ने माथे पर बल से डालते हुए पूछा। 

"मेरी मैडम अक्सर महिला वृद्धाश्रम जाती है। उन महिलाओं को कुछ खाने का या पहनने ओढ़ने का सामान देकर आती है। इसी साल जनवरी में हम, मुझे वह हमेशा अपने साथ लेकर जाती है जब वृद्धाश्रम उन महिलाओं को गरम शॉल बांटने गए। तो सभी महिलाओं ने ले ली। परंतु एक संभ्रांत सी वृद्ध महिला ने शाल लेने से इनकार किया और मुदिता मैडम की बाह पकड़ कर कमरे की तरफ ले जाते हुए कहने लगी ।आप प्लीज मेरे साथ आए एक बार , सिर्फ 5 मिनट के लिए। एक अजीब सी कशिश थी उसके कहने और ले जाने में। हम दोनों ही उसके साथ चल दी। कमरे में जाकर उसने अपने बेड के नीचे से एक बड़ा सा ट्रक निकालकर खोला तो हमने देखा उसमें ढेरों गरम बहुत सुंदर नई शॉल रखी थी। उसका नाम गायत्री है। वह कहने लगी, मेरे पास कपड़ों की कोई कमी नहीं । अगर बेटा दे सकती है तो कभी-कभी थोड़ा समय मुझे दे दिया कर। मुदिता मैडम एकदम बोली , "क्या मतलब समय से?   गायत्री ने कहा," मेरे से कभी कभी बात कर लिया कर। आ सको तो, तुम्हारा बहुत एहसान बेटा,  नहीं तो फोन पर ही बात कर लिया कर । मुझे भी लगे मेरा कोई है। मुझसे मिलने आने वाला, बात करने वाला।" वो कहकर चुप हो गई और एक आस के साथ मैडम को देखने लगी। मैं अपने आंसुओं को बड़ी मुश्किल से रोक पाई। मैं जो हमेशा यह सोच सोच कर दुखी होती थी कि भगवान ने मेरे को तो इतना पैसा नहीं दिया कि कुछ दान कर सकूं। गायत्री देवी की इस बात ने एक पल में मुझे राहत दे दी।" मीना जो लगातार सरोज को बता रही थी उसे  सरोज ने बीच में ही टोका ," वह कैसे"? अब मैं हर इतवार  सुबह 9:30 से 12:30 बजे तक अपना समय महिला वृद्ध आश्रम में बिताती हूं । उन महिलाओं के साथ , खासकर गायत्री देवी के साथ ।"मीणा की आवाज में एक अजीब सी खुशी और सुकून था।

     डॉ अंजना गर्ग द्वारा लिखी गई

सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

*निशब्द*

शर्म नहीं आती आप दोनों को ....कम से कम अपनी उम्र का तो लिहाज रखो .....

ये संभ्रांत लोगों की कालोनी है यहां बच्चे बडे सभी आते है पार्क में वाक करने.... टहलने.....

लेकिन आए दिन आप दोनों यूं साथ बैठे रहते है...  दोनों को देखकर आपको तो  शर्म  आती नहीं ,हमें ही आँखें नीचे करनी पड़ती है....वह वाकिग सूट पहने  मॉर्डन सा दिखने वाला व्यक्ति गुस्से से उन दोनो से बोला...

तभी एक दूसरे दोस्त ने भी इसी का साथ देते हुए कहा....बिल्कुल सही कहा आपने भाईसाहब...... अब ये हरकतें बच्चे करें ,तो समझ आता है ,कह सकते हैं के नासमझ है, मगर ये दोनों तो बूढे है ....मे भी पिछले कुछ दिनों से बराबर देख रहा हूं इन दोनों को

शर्म नही आती आप दोनों यू घुल मिलकर बेंच पर साथ साथ रोजाना घंटे ऐसे गुजारते हैं

पार्क मे इकठ्ठी भीड ने भी दोनो बुजुर्गो को घेर रखा था ,और कुछ ऐसी ही बातें कहते हुए उन दोनों बुजुर्गों पर सभी गुस्सा हो रहे थे

तभी उन बुजुर्ग ने चुप्पी तोडी हुए कहा... हम कोई छिछोरे  जवान नहीं है ....

ये मजबूरी है हम दोनों की.आप सभी जानते हैं की मे आपकी ही कालोनी का हूं  और मेरी पत्नी गुजर चुकी है, बच्चे विदेश मे अपने सेंटल है, उन्हें अपने बाप की कोई चिंता नही है अकेला बीमारी मे मैं  रहता हूं....मेरे बनाए उस घर मे जिसे मे मंदिर कहता हूं,पर  मुझे लगता था वो मेरे बच्चे मेरे बुढापे का सहारा बनेंगे मगर, ...वो भी सब छोड गए,

और ये है गीता जी,  इनकी भी कहानी ऐसी ही है, बच्चों ने इनकी संपत्ति ,पिता की मृत्यु के बाद हड़प ली और इन्हें वृद्ध आश्रम मे छोड कर सब चल दिये .....

ये अपना मन बहलाने यहां पार्क में आती है ,यहां हमारी मुलाकात हुई एक,दूसरे का गम बांटते बांटते जान पहचान हुई है..

बेटा इन्हें कम सुनाई देता है वही मुझे कम दिखाई देता है हम दोनों सत्तर पार है आज हम दोनों एक दूसरे का सहारा है कुछ गम बांट लेते है पास बैठकर .... सकून महसूस करते हैं..

इस उम्र मे  हम दोनों को शारारिक जरुरतें नही, बल्कि एक दूसरे से बातचीत कर,, कहने सुनने वाला साथी बने हुए हैं

और अब हम दोनों ने शादी करने का फैसला भी किया है ,जल्द ही आश्रम मे हमारी शादी होने वाली है आप भी आना अपने बुजुर्गों को शुभकामनाएं देना.....कहकर वह दोनों बुजुर्ग एक दूसरे का हाथ थामे चलने लगे ....

वहीं इकट्ठा हुई भीड शर्मिंदगी से छंटने लगी थी निशब्द सी होते हुए.....



 

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

*घर बनाना*

 स्त्री के कामों की कभी लिस्ट बनाई क्या?..

वो कहते है ना स्त्री को घर बनाने में,उनका कितना समय  लगता है... 

और उसके  कहना आसान होता है... 

पर वो स्त्री ही है जो घर के सारे काम के साथ बड़े  जतन से खाना बनाती है...

सुबह से तैयारी करके... 

कभी कुछ धुप में सुखा के...

तो कभी कुछ पानी में भिगो के... 

कभी मसालेदार..

तो कभी गुड़ सी मीठी... 

सारे स्वाद समेट लेती हैं ...तरह तरह के परोसे बनाने में,

आलू के पराठों में, या गाजर के हलवे में, ऊपर बारीक कटे धनिये के पत्तो में, या पीस कर डाले गए इलाइची के दानों में...

सारे स्वाद समेट देती हैं एक छोटी सी थाली को सजाने  में...और सबको खुश रखने में...

न जाने कहाँ  से हुनर लाती है...

 ना जाने कितना कुछ तो होता है . इन स्त्री के पास..

तुम बना पाओगे क्या ?...एक बार सोचें,

हम सबको बस खाना ही दिखता है...

पर नही दिखती... 

किचन की गर्मी, 

उस स्त्री का पसीना, 

हाथ में गरम तेल के छींटे, 

कटने के निशान,

कमर का दर्द,

पैरो में सूजन, 

सफ़ेद होते बाल..

कभी नहीं दिखते...,,


कभी ध्यान से देखा क्या ?,,उस की रसोई  रूपी कमरे में.. झांककर. क्या दिखेगा जाकर ,,

स्त्री का रूप

जो बदल गया है इतने सालो में... दांत हिले होंगे कुछ.... 

बाल झड़ गए होंगे कुछ...

झुर्रियां आयी होंगी कुछ,

  मकान को घर बनाने में,,,,,घर के लोगों का खाना बनाने में

चश्मा लगाए, हाथ में अपनी करछी, बेलन लिए जुटी होगी...

आज भी वही कर रही है.. जो कर रही है वो  पिछले पच्चीस तीस सालों से, और भी शायद ज्यादा समय हुआ होगा ,फिर भी तुम्हे देखते ही पूछेगी 

"क्या चाहिए?”... कुछ  और बना दूं?


कभी देखना उसके मन के कुछ अनकहे ज़ज़्बात, दबी हुई इच्छाएं,,

जो दिखती नही..


क्योंकि जो दिखती नही, उन्हें देखना और भी ज़्यादा ज़रूरी होता है... 


उसकी  गैर मौजूदगी में... कभी

जब रसोई से दो बिस्किट और  चाय हाथ में लेकर निकलो ,,  सच मानो

तब उसकी बात सोचने पे मज़बूर हो जाओगे.. क्योंकि उसने सिर्फ खाना ही नहीं बनाया है इतने सालो में... 

इस घर को भी बनाया है...

खुद को मिटा के...

और याद है न...

बनाने में घण्टों लगते है,

दिन रात मेहनत करके...

लिस्ट तक  नहीं पाएगी उसके कामों की, कोशिश  करके देखना.. 

कभी बन नहीं पाएगी



रविवार, 22 अक्तूबर 2023

*कड़वी सच्चाई*

 जिन घरों में ,वो रोजाना ,अखबार, डालता है, उनमें से एक का लेटर बॉक्स उस दिन पूरी तरह से भरा हुआ था, जगह नही थी के वो उसमे और अखबार डाले,इसलिए उसने घर का दरवाजा खटखटाया।और जानना चाहा के क्या बात है।

उस घर की , बहुत बुजुर्ग सी दिखने वाली मालकिन मधु पांडे ने,थोड़ी देर के बाद, धीरे से, दरवाजा  खोला।

सामने अखबार वाला खड़ा था, बोला, मैडम, आपका लेटर बॉक्स इस तरह से भरा हुआ क्यों है?"क्या अखबार निकले नही आपकने पढ़े नही?

तब उन्होंने जवाब दिया, "ऐसा मैंने जानबूझकर किया है।" फिर वो मुस्कुराई और अपनी बात जारी रखते हुए  कहा "मैं चाहती हूं कि आप हर दिन मुझे अखबार दें। अब आगे से रोज दरवाजा खटखटाएं या घंटी बजाएं और अखबार मुझे व्यक्तिगत रूप से हाथ में सौंपें ।"

हैरानी से उसने पूछा, "हां ,आप कहती हैं तो मैं आपका दरवाजा ज़रूर खटखटाऊंगा, लेकिन यह हम दोनों के लिए असुविधा और समय की बर्बादी नहीं होगी क्या ?"मुझे आगे बहुत जगह अखबार  बाटने होते हैं और आपको भी इतनी सुबह सुबह यूं उठाना,कुछ ठीक नहीं लग रहा मुझे,

तब वो बोलीं, "आपकी बात सही है... फिर भी मैं यही चाहती हूं कि आप ऐसा करें ,मैं आपको दरवाजा खटखटाने के शुल्क के रूप में हर महीने 500/- रुपये अतिरिक्त दूंगी।"

विनती भरी अभिव्यक्ति के साथ, उन्होंने अपनी बात जारी रखी बोली,"अगर कभी ऐसा दिन आए, जब आप दरवाजा खटखटाएं ,और मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न मिले, तो कृपया पुलिस को फोन करें!"

उनकी बात सुनकर एक बार अजीब सा लगा  और तुरंत वो पूछने लगा, "क्यों मैडम ऐसा क्यो कह रही हैं आप?"

तब वो बोलीं, "मेरे पतिदेव  का निधन हो गया है, मेरा बेटा और बेटी दोनों उनके परिवार के साथ विदेश में रहते है, और मैं यहाँ अकेली रहती हूँ । कौन जाने, मेरा बुलावा कब आ जाए ?"इसलिए ऐसा करना  चाहती हूं क्या आप मदद करेंगे?

उस पल,कहते हुए   उस बुज़ुर्ग औरत की आंखों में छलक आए आंसुओं को देख अखबार वाले के मन में  एक हलचल  सी महसूस हुई

वो मैडम आगे कहती जा रही थी, "मैं अखबार नहीं पढ़ती,मैं दरवाजा खटखटाने या दरवाजे की घंटी बजने की आवाज सुनने के लिए अखबार लेती हूं। किसी परिचित से ,चेहरे को, देखने और बस कुछ बातें ऐसे ही आदान-प्रदान करने के इरादे से में ऐसा करने का बोल रही हूं!"

 बाद में हाथ जोड़कर कहने लगीं, "कृपया मुझ पर एक एहसान करो! यह मेरे बेटे और बेटी का विदेशी फोन नंबर है। अगर किसी दिन तुम दरवाजा खटखटाओ और मैं जवाब न दूं, तो कृपया मेरे बेटे या बेटी को फोन करके इस बारे में सूचित कर देना।"और ये कहते हुए उन्होंने उनके नंबर भी दिए,

निरूतर सा अखबार वाला उनको देखता रहा,और एक कड़वी सच्चाई कों ,सुनते हुए उनको ये काम करने से  मना नहीं कर सका !



 

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

* बुढ़ापा और वरिष्ठता*

 वरिष्ठता और बुढ़ापा में क्या कोई अंतर है ?

आइए इसको ऐसे समझते है.................

इंसान को उम्र बढ़ने पर ‘वरिष्ठ’ बनना चहिए , ‘बूढ़ा’ नहीं|

बुढ़ापा अन्य लोगों का आधार ढूंढता  है और वरिष्ठता, वरिष्ठता तो लोगों को आधार देती है ।

बुढ़ापा छुपाने का सबका मन करता है, 

और वरिष्ठता को उजागर करने का मन करता है ।

बुढ़ापा अहंकारी होता है,

वरिष्ठता अनुभव संपन्न, विनम्र और संयम शील होती है ।

बुढ़ापा नई पीढ़ी के विचारों से छेड़छाड़ करता है,

और वरिष्ठता युवा पीढ़ी को, बदलते समय के अनुसार जीने की छूट देती है ।

बुढ़ापा "हमारे ज़माने में ऐसा था" की रट लगाता रहता है,

और वरिष्ठता बदलते समय से अपना नाता जोड़ लेती है, उसे अपना ने की कोशिश करती है। 

बुढ़ापा नई पीढ़ी पर अपनी राय लादता है, थोपता है,

और वरिष्ठता तरुण पीढ़ी की राय को समझने का प्रयास करती है।

बुढ़ापा जीवन की शाम में अपना अंत ढूंढ़ता है मगर वरिष्ठता,

वह तो जीवन की शाम में भी एक नए सवेरे का इंतजार करती है, युवाओं की स्फूर्ति से प्रेरित होती है ।

संक्षेप में ...

वरिष्ठता और बुढ़ापे के बीच के अंतर को समझकर, जीवन का आनंद पूर्ण रूप से लेने में सक्षम बनना चाहिए ।